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बाहर सुन्दर, भव्य और सुसज्जित रथ तैयार खड़ा था। उसके तेजस्वी अश्व हिनहिना रहे थे।
कोशा और माधवी रथ में बैठ गईं। गजेन्द्र अपने मालिक के पास बैठ गया।
सारथी-वेश में बैठे सुकेतु ने रथ को गतिमान किया। तेजस्वी अश्व वायुवेग से दौड़ने लगे। रथ को सम्राट के शिविर की ओर न जाते देखकर कोशा विचार करने लगी और जब रथ दूसरी दिशा की ओर मुड़ा तब उसने तेज शब्दों में कहा- 'सारथी! मगधेश्वर का शिविर तो दक्षिण दिशा में
'जी हां...मगधेश्वर साम्राज्ञी के साथ नागमुख नौका में विराज रहे हैं....' सारथी वेश में छिपे सुकेतु ने कहा।
रूपकोशा को यह बात नहीं जंची। रात को सम्राट् नागमुख नौका में जाएं और राजनर्तकी को वहां बुलाएं, यह समझ में आने वाली बात नहीं थी।
कोशा के मन में संशय उभरने लगा। किन्तु कोशा को विश्वास था कि संसार में उसका कोई शत्रु नहीं है। किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि रूप के शत्रु अनेक होते हैं।
थोड़े समय पश्चात् माधवी ने कहा- 'देवी.....!' 'क्या है?' 'गंगा का किनारा तो दाहिनी ओर रह गया है'-माधवी ने कहा। कोशा के मन में भी यही बात आयी। उसने कहा- 'सारथी....' 'आज्ञा!' 'गंगा का किनारा तो इस ओर रह गया है।' 'आपका अनुमान सही है। 'तो तू रथ किस ओर ले जा रहा है ? रथ को रोक!'
इस समय तक रथ वसन्तोत्सव के मैदान से बाहर निकल चुका था। अश्व वायुवेग से उड़ रहे थे।
कोशा ने तीव्र स्वरों में कहा- 'सारथी! रथ को रोक!'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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