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'आर्यपुत्र ! क्षमा करें....मैंने ऐसा कौन-सा अपराध कर डाला कि सुख आपको दु:ख रूप लगने लगा?' कोशा का स्वर प्रकंपित हो रहा था।
वह समझ नहीं पा रही थी कि आर्यपुत्र ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हैं?
प्रियतम के साथ वह बातें कर रही थी। उनके शब्द मानो हृदय की गहराई से निकल रहे थे। कोशा के मन में एक प्रश्न उभरा-वह उसको कहे, इससे पूर्व चित्रा ने खंड में प्रवेश कर कहा- 'देवी ! राजसभा का एक प्रतिनिधि आया है और वह आर्यपुत्र से मिलना चाहता है। उसने कहा है कि सम्राट् ने स्थूलभद्र को राजसभा में आने को निमंत्रित किया है और सारी सभा उत्सुकता से आर्यपुत्र स्थूलभद्र की प्रतीक्षा कर रही है।'
_ 'सम्राट् मुझे बुला रहे हैं?'-स्थूलभद्र ने चित्रा की ओर देखकर कहा।
'हां, महाराज! प्रतिनिधि आपकी प्रतीक्षा में आंगन में ही खड़ा है। सम्राट् का रथ द्वार पर खड़ा है।'
स्थूलभद्र का वदन कुछ मुसकरा उठा। उसने कहा- 'मगधेश्वर की राजसभा में मेरी क्या जरूरत ? चित्रा ! प्रतिनिधि को कह दे कि मैं अस्वस्थ हूं।'
चित्रा ने मंजुल स्वर में कहा- 'महाराज ! प्रतिनिधि ने कहा है कि सम्राट् और राजसभा के सभी सदस्य आपको महामंत्री के गौरवास्पद पद पर बिठाना चाहते हैं।'
'मगध का महामंत्री!' कोशा केनयन उल्लास से भर गए। स्थूलभद्र हंसा।
इस हास्य को देखकर कोशा पर मानो बिजली पड़ी हो, ऐसी अवस्था हो गई।
स्थूलभद्र बोला- 'देवी! मेरे मन में पद की महत्त्वाकांक्षा नहीं है। जिस वस्तु को मैं छोड़ना चाहता हूं, उसमें फंसना उचित नहीं होता।'
'नाथ! आप सभा में जाएं! आपका शोक-विह्वल मन शांत होगा। मन की शांति के लिए आपको कार्यरत रहना आवश्यक है।'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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