________________
कोशा का यह उत्कृष्ट रूप मुनि स्थूलभद्र ने बारह वर्षों के जीवन में शायद ही कभी देखा हो....।
कोशा ने स्वामी की ओर देखा। स्वामी के नयनों में कोई विकार नहीं था, कोई उत्तेजना नहीं थी-वही शांति अठखेलियां कर रही थीं। कोशा ने नृत्य प्रारम्भ करने से पूर्व प्रार्थना के स्वरों में मुनि से कहा'स्वामिन् ! आप मेरा यह नृत्य ध्यानपूर्वक देखें। आपको प्राप्त करने का यह अंतिम उपाय है....कृपा कर आप इसकी उपेक्षा न करें।'
स्थूलभद्र ने शांत नयनों से कोशा की ओर देखते हुए कहा-'देवी! मेरा आशीर्वाद है....धर्म तुम्हारा मंगल करे।'
धर्म और मंगल! धर्म और लाभ! कल्याण और मुक्ति!-ये शब्द सुनते-सुनते कोशा ऊब चुकी थी।
नृत्य प्रारम्भ हुआ। मंथर गति से नृत्य विकसित होता गया। अनंग का प्रभाव चारों ओर फैलने लगा। मुंदी हुई कलिकाएं मानो विकसित होने के लिए तड़प उठीं।
नृत्य का वेग बढ़ा।
एक-एक अंग नाचने लगा। कोशा के अंग-प्रत्यंग फूलों की तरह नाचने लगे। कोशा के पैर अनंग-कामदेव को मुक्त करने लगे। उसके कटाक्ष मुनि के हृदय के आर-पार जाने के लिए उतावले हो गए।
__एक घटिका बती गई....दो घटिकाएं पूरी हुईं....नृत्य को कहीं विराम नहीं था। कोशा ने अपनी सारी पूंजी, सारी कला उस नृत्य में उंडेल दी।
एक प्रहर पूरा हुआ।
मुनि स्थूलभद्र चंचल नहीं हुए....औषधि का कोई प्रभाव दृग्गोचर नहीं हुआ। कोशा ने नृत्य के अनेक भाव प्रकट करने प्रारम्भ किए। आंख की भाषा बोलने लगी, हाथ की मुद्राएं गाथाएं गाने लगीं। वे कह रही थींपुरुष! पुरुष! यौवन ही जीवन का सत्य है। यौवन ही जीवन का सार है। यौवन की सही भूख है नर-नारी का मिलन....यह मिलन संसार का सनातन काव्य है।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
२६८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org