Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 297
________________ पिछली तीन पीढ़ियों से नेपाल के सम्राट् प्रतिदिन एक कंबल साधुओं को दान में देते थे। मुनि ने इस रत्नकंबल को बहुत ही सावधानी से रखा, क्योंकि उनके लिए वह प्राणों से भी अधिक मूल्यवान था। मुनि जब रूपकोशा के भवन में आए तब रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चुका था। मुनि ने अपने आगमन की सूचना एक परिचारिका द्वारा कोशा तक भेजी और साथ ही साथ रत्नकंबल की प्राप्ति की बात भी कहलवायी। कोशा ने सोचा था कि मुनि प्रवासकाल के कष्टों की भयंकरता को देख अपने आपको संभालेंगे, किन्तु वैसा नहीं हुआ। कोशा ने चित्रा से कहा-'चित्रा! तू जा और मुनिवर से कह आ कि कोशा प्रात: मिलेगी, किन्तु एक बात का ध्यान रखना कि मुनि से वह रत्न-कंबल किसी भी बहाने से ले आना। फिर मैं देख लूंगी।' चित्रा ने आकर मुनि से कहा- 'देवी रूपकोशा आपको प्रात: मिलेंगी। वे आपका रत्नकंबल देखना चाहती हैं।' मुनि मौन रहे। रत्नकंबल दे दिया, किन्तु तत्काल मिलने की लालसा पूर्ण नहीं हुई। प्रात:काल सूर्योदय हुआ। सारी रात सुखोपभोग और मधुर मिलन की कल्पनाओं में मन को उलझाए रखकर मुनि अनिद्रित रहे। प्रात: वे चित्रशाला के बाहर आए। चित्रा बाहर खड़ी थी। मुनि ने उतावलेपन से पूछा- 'देवी कहां है?' 'वे अभी-अभी उपासना करने उपवन में गई हैं।' 'मुझे उनसे मिलना है।' 'आप मेरे साथ चलें, देवी आपसे मिलना चाहती हैं।' 'क्या देवी सचमुच मुझसे मिलने के लिए आतुर हैं?' 'हां महाराज!' आर्य स्थूलभद्र और कोशा २८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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