Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 300
________________ इससे मेरे मन में ईर्ष्याभाव जागा और यहां आने का निश्चय किया। आज मुझे यह समझ में आ गया कि आर्य स्थूलभद्र को लाखों साधुवाद मिलें तो भी अल्प हैं। चित्रशाला के कामगृह में रहकर षड्रसयुक्त भोजन करते हुए, रूपकोशा के अनंग सुन्दर रूप को देखते हुए भी निर्विकार रहना, देवताओं के लिए भी दुष्कर कार्य है।' कोशा के नयन डबडबा गए। मुनि ने पुन: कहा- 'देवी! आपने मेरे पर महान उपकार किया है, नीचे गिरते हुए को हस्तावलम्बन दिया है....धन्य है मुनि स्थूलभद्र और धन्य हैं आप। मैंने अनन्त कर्मों का भार सिर पर ले लिया। धिक्कार है मुझको!' ___ 'महाराज! पश्चात्ताप से सारे कर्म-बन्धटूट जाएंगे। अब आप शान्ति से चातुर्मास पूर्ण करें।' पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए मुनि एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। कोशा वन्दना कर चली गई। २६६ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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