Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 298
________________ 'चल, मैं चलता हूं।' मुनि का मन अत्यन्त चंचल हो उठा। मुनि उत्साहपूर्वक हृदय और उत्सुक मन से कोशा से मिलने जा रहे थे। अकस्मात् उनकी दृष्टि स्नानगृह के पास पड़े कीचड़ पर पड़ गई। उस पर एक वस्तु चमक रही थी। उसे देखते ही मुनि चमक उठे। वे बोले-'यह क्या ? इतने कठोर परिश्रम से प्राप्त यह रत्नकंबल इस कीचड़ में लथपथ हो रहा है?' रत्नकंबल उस कीचड़ पर ही पड़ा था। यह सारा पूर्व-नियोजित रूप से किया गया था। अनजान बनने का अभिनय करती हुई चित्रा बोली'चलें....आगे चलें। देवी उपवन में आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं।' 'दासी! देख, इस कीचड़ की ओर तो देख।' मुनि खड़े रह गए। चित्रा ने कीचड़ की ओर देखा और आश्चर्यभरे रूप में कहा-'अरे, यह क्या? यह तो वही मूल्यवान कंबल है। यहां कैसे आ गया? क्या देवी ने इसका भी त्याग कर दिया है?' मुनि ने कीचड़ से सने रत्नकंबल को उठा लिया। चित्रा मुनि के साथ उपवन में आयी। कोशा के संकेत से चित्रा वहां नहीं रुकी। मुनि ने कोशा से कहा- 'देवी! आपने यह क्या किया?' "क्या, महाराज?' 'मूल्यवान कम्बल की यह दुर्दशा?' कोशा हंस पड़ी। उसने हंसते हुए कहा-'इसमें इतना शोक करने जैसी क्या बात है?' 'देवी! आप बड़ी विचित्र हैं। इस कम्बल को प्राप्त करने में मुझे कितना श्रम करना पड़ा है। आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकतीं। इसकी प्राप्ति के लिए मैंने दिन और रात का भी ख्याल नहीं किया, भूख और प्यास की परवाह नहीं की। मार्ग में मैंने भयंकर और मारणान्तिक कष्ट झेले हैं। तीस-तीस रात तक जागकर राजदरबार में पहुंचा। इतने परिश्रम से प्राप्त वस्तु का यदि यही उपयोग करना था तो मुझे नेपाल क्यों भेजा?' २८७ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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