Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५३. पश्चात्ताप की अग्नि
मुनि तीव्र गति से नेपाल की ओर चले जा रहे थे। पर्वतों, नदियों और भयंकर वनों को पार करते हुए वे नेपाल देश पहुंच गए।
इस प्रयाण में उन्हें भूख, निद्रा या थकान नहीं सताया। मन में रूपरानी कोशा बस रही थी और उसे प्राप्त करने की लालसा के समक्ष ये सब विघ्न अकिंचित्कर हो गए थे।
सभी व्रत, नियम आदि साधु धर्मों को तिलांजलि दे वे राजदरबार में पहुंच गए। उन्हें एक रत्नकंबल प्राप्त हो गया। पुन: वहीं मुनि दूसरी बार रत्नकंबल लेने न आ जाए, इसलिए राजकर्मचारी प्रत्येक साधु की बांह पर एक छाप लगा देते थे। इस मुनि की बांह पर भी वह मुद्रा अंकित कर दी गई।
मुनि ने रत्नकंबल लेकर प्रसन्न हृदय से नेपाल से प्रस्थान किया। उन्होंने न तो मार्ग में विश्राम किया और न नेपाल की राजधानी का अवलोकन किया। जिन पैरों गए, उन्हीं पैरों लौट आए।
उनके लिए कोशा सर्वस्व थी और यह रत्नकंबल उसकी प्राप्ति का अमोघ मन्त्र था।
वह अनवरत चलते रहे। मार्गगत बाधाओं को चीरते हुए वे दो मास में पाटलीपुत्र पहुंचे।
दान में प्राप्त वह रत्नकंबल असाधारण था। वह एक कलात्मक और अत्यंत मुलायम उपवस्त्र था। वह मुट्ठी में समा जाता था। ऐसे कंबलों का उत्पादन केवल नेपाल में ही होता था, अन्यत्र वह दुर्लभ था। उसकी कीमत सवा लाख स्वर्ण-मुद्राएं थीं।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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