Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 294
________________ मुनि तपस्वी न रहकर प्रेमी बन गए थे। मुनि के वचन सुनकर कोशा का दर्द उभर आया। वह अपने भावों को छिपाती हुई बोली-'महाराज! मैं नर्तकी हूं, यह आप जानते हैं या नहीं?' 'कोशा! तू केवल नर्तकी नहीं, विश्व की अनुपम सुन्दरी भी है, यह मैं जानता हूं।' 'मुनिवर! आप शायद नहीं जानते कि नर्तकी बिना धन किसी की नहीं बनती और आपके पास एक कौड़ी भी नहीं है, फिर आप मुझे पाने की आशा....' ___'कोशा! मेरे पास धन नहीं, पर हृदय है। तुझे सुख देना ही होगा। तू जो कहेगी वह मैं करूंगा। यदि तू मुझे निराश करेगी तो संभव है मैं यहीं मृत्यु का वरण कर लूंगा।' कोशा विचारमग्न हो गई। मुनि के तृषातुर नयन कोशा के रूप को पी रहे थे। कोशा ने कहा- 'मेरे दास बनकर यहां रह सकोगे?' 'इसी क्षण से।' 'जीवन भर रह सकोगे?' 'अनन्त जन्मों तक....' कोशा के मन में प्रश्न हुआ-इस मुनि को अध:पतन से कैसे बचाऊं? मुनि ने अधीर होकर कहा- 'देवी! तेरी क्या आज्ञा है?' 'महाराज! मैं आपको दास बनाकर रखू, यह उचित नहीं है। लोग मेरी निन्दा करेंगे। एक उपाय है....' 'बोल....!' 'मार्ग अत्यन्त कठिन हैं' 'इसकी तू चिन्ता मत कर।' 'नेपाल के सम्राट् साधुओं को रत्नकंबल का दान देते हैं। यदि आप मुझे एक रत्नकंबल ला देंगे तो उसके बदले आप मेरे से सुख प्राप्त करेंगे।' २८३ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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