Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 293
________________ 'देवी! पाप के भय से मैं इन पन्द्रह वर्षों से त्याग के मार्ग पर चल रहा हूं। मेरी उम्र केवल पैंतीस वर्ष की है, किन्तु त्याग की कठोरता के नीचे मैंने अपने यौवन, मन और आशाओं-आकांक्षाओं को पीस डाला है। यहां आने पर यह स्पष्ट समझ में आ गया है कि पाप का भय अयथार्थ है, काल्पनिक है।' 'महाराज! आप यह क्या कह रहे हैं?' कोशा ने आश्चर्य के साथ कहा। 'कोशा ! मैं सच कह रहा हूं। मृत्यु के बाद जो कुछ होना होता है, उसके लिए वर्तमान के सुखों को गंवा देना जिन्दगी के प्रति अन्याय करना है।' 'मुनिवर्य! ऐसा सत्य आपको किसने दिखाया?' 'सत्य कहूं?' 'हां, महाराज.....!' 'कोशा ! यह सत्य मुझे तेरे यौवन ने दिखाया है।' मुनि की वाणी अब त्यागी की वाणी नहीं रही, संसारी की वाणी हो गई। 'मेरा यौवन?' कोशा आश्चर्य में डूब गई। 'हां, कोशा! तुझे मेरी एक प्रार्थना माननी ही होगी। जिस सुख का मुझे स्वप्न में भी अनुभव नहीं हुआ, वह सुख तुझे देना होगा।' मुनि ने मन की बात कह डाली। कोशा जान गई कि मुनि पथभ्रष्ट हो रहे हैं। उसने मन ही मन यह निश्चय किया कि मुनि को बचा लेना चाहिए। कुछ देर सोचकर कोशा बोली- 'महाराज! आप कैसा सुख चाहते हैं?' मुनिराज ने कामराग के चित्रों की ओर देखते हुए कहा- 'देवी! मैं तुम्हारे मधुर और रसमय साहचर्य की इच्छा करता हूं। तेरे देव-दुर्लभ रूप में मैं समा जाना चाहता हूं। तेरे रसोन्माद भरे हास्य में मैं अपने आपको खो देना चहाता हूं।' आर्य स्थूलभद्र और कोशा ૨૨ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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