Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 286
________________ मगधेश्वर घननन्द ने कहा- 'कोशा! इतनी छोटी उम्र में धर्म की आराधना कैसे संभव हो सकेगी?' कोशा ने हंसकर कहा- 'महाराज! शरीर क्षणभंगुर है। इस पर विश्वास करना खतरे से खाली नहीं है।' ___ मगधेश्वर ने कोशा की भावना को परखा। उन्होंने कहा- 'कोशा! तेरे उत्तम विचारों को धन्य है। मैं उनका समर्थन करता हूं और तुझे उस पद से मुक्त करता हूं। किन्तु वह पद किसे दिया जाए? मैंने सुना है कि तेरी छोटी बहन चित्रलेखा इस पद के योग्य है। वह तेजस्विनी और सभी कलाओं में निपुण है इसलिए. बीच में ही कोशा ने कहा- 'वह इस पद के योग्य अवश्य है, पर अभी उसका अभ्यास चल रहा है। "जब अभ्यास पूरा हो जाएगा, तब उसे इस पद पर विभूषित कर दिया जाएगा। तू उसकी देखभाल करती रहना। तब तक राजनर्तकी का आसन खाली पड़ा रहेगा।' कोशा का मन आनन्द से भर गया। वह सम्राट के चरणों में झुक गई। कोशा ने राजनर्तकी के पदगौरव के प्रतीक स्वर्णजड़ित मुकुट और स्वर्णरथ, जो राज्य की ओर से उसे प्राप्त हुआ था, सम्राट के पास भेज दिया। उसने भवन की सारी व्यवस्था चित्रलेखा को सम्हला दी और स्वयं व्रत, नियम, संयम की आराधना में लग गई। इकतीस दिन बीत गए। कोशा को अपूर्व शांति का अनुभव हो रहा था। कोशा को यह ज्ञात हो गया कि साधनों की विपुलता और अमर्यादित परिग्रह दुःखों को ही बढ़ाता है। जो आनन्द त्याग में है, वह भोग में नहीं। त्याग धर्म है, भोग अधर्म। इधर मुनि स्थूलभद्र कोशा के कामगृह से विहार कर इक्कीसवें दिन गुरु के चरणों में पहुंच गए। २७५ आर्यस्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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