Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 284
________________ देखे, उसके मन में विकार उत्पन्न नहीं होता। इस कामगृह में यदि किसी बालक को रखा जाए तो ये सारे भित्तिचित्र उसको खिलौने जैसे लगेंगे। मुझे भी ये चित्र वैसे ही लगते थे। मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपने अभ्यास में सफल रहा।' 'मुनिराज ! मैंने आपके पवित्र मन और भावनाओं का अंकन किए बिना एक अनर्थ कर डाला था। मैं प्रतिदिन आपके भोजन में कामोद्दीपक दिव्य औषधि का मिश्रण करती थी। बीस दिन तक यह क्रम चला। किन्तु...' 'देवी ! औषधि तब ही कार्य करती है जब व्यक्ति के मन में कहीं राग और मोह शेष रह जाता है। मेरे मन में राग और मोह का भाव दग्ध हो चुका है । भद्रे ! मृत इच्छाएँ औषधि के प्रभाव से कभी अंकुरित नहीं हो सकतीं।' कोशा का संशय दूर हुआ । चातुर्मास सम्पन्न हुआ। मुक्ति-मार्ग का एक महान प्रवासी काम और विलास पर महान विजय प्राप्त कर प्रस्थान कर गया । कुछ समय पूर्व तक स्थूलभद्र का प्रस्थान कोशा के प्राणों में वेदना भर देता था। आज उसके प्राणों में अनन्त सुख क्रीड़ा कर रहा था। आज कोशा का एक अंग मुक्ति की ओर प्रवासी हो चुका था और दूसरा अंग मुक्तिमार्ग की ओर चरण बढ़ाने का प्रयास कर रहा था। कोशा के हृदय में कामजित् मुनि स्थूलभद्र के ये वाक्य गूंज रहे थेजिस दिन तुम सांसारिक सुखों को सर्प की केंचुली की भांति छोड़ दोगी, उस दिन ज्ञातपुत्र का त्याग मार्ग सुलभ हो जाएगा। कशा ने हर्ष से प्रफुल्लित नयनों से गंगा के किनारे की ओर देखा । तेजपुंज मुनि स्थूलभद्र मंद-मंद गति से चरण उठाते हुए अनन्त की ओर चले जा रहे थे। कोशा ने इस किनारे खड़े रहकर तेजपुंज की छाया को पुनः वंदना की। २७३ Jain Education International - आर्य स्थूलभद्र और कोशा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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