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५०. प्रस्थान
तीन प्रहर तक किए गए अविरल नृत्य से कोशा थककर चूर हो गई थी। चित्रा के कंधों पर हाथ रखकर वह चित्रशाला से बाहर आयी।
चित्रा ने कहा- 'देवी! सायं हो चुकी है। अब भोजनगृह में नहीं पहुंचा जा सकता।'
___ 'चित्रा! जीवन में कई बार हार भी जीत से महान हो जाती है। आज मैं हारकर भी जीत गई हूं। आर्य स्त्रियों की जीत उनके स्वामी की विजय में गर्भित होती है। मेरे मन का भार आज हल्का हो गया है। अभी भोजन की रुचि नहीं है....मैं स्नान कर सो जाना चाहती हूं।'
चित्रा मौन रही।
छोटी बहन चित्रलेखा भवन में ही प्रतीक्षारत बैठी थी। कोशा को देखते ही वह दौड़ी और हंसते-हंसते बोली-'आज क्या खोकर आयी हैं ?'
'चित्रलेखा! जो खोना था, वह खो दिया और जो पाने योग्य था उसे लेकर आई हूं।'
किन्तु बहिन की यह रहस्यमय बात चित्रलेखा समझ नहीं सकी। कोशा स्नानगृह की ओर गई।
परिचारिकाओं ने उसके स्वर्ण जैसे सुन्दर और फूल जैसे कोमल शरीर पर शतपाक तैल का मर्दन किया।
फिर भ्रमहर द्रव्यों के साथ उबाले हुए जल से उसे स्नान कराया। स्नान के पश्चात् कोशा की सारी थकावट दूर हो गई।
कोशा अपने शयनगृह में जाकर शांत भाव से निद्राधीन हो गई। आज उसका मन शांत था, प्रशान्त था। न विचार और न चिन्तन। सब कुछ शांत, शांत, शांत । वह मीठी नींद में खो गई।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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