Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 281
________________ कोशा बोली- 'मेरा उपवस्त्र ले आ.... चित्रा ने उपवस्त्र से कोशा के निरावरण शरीर को ढांका । कोशा ने मुनि के तेजस्वी वदन को देखते हुए कहा- 'मैंने आपको बहुत कष्ट दिया है, आप क्षमा करें।' ___ 'भद्रे! तुमने मेरे पर महान उपकार किया है। यदि तुमने ये उपाय नहीं किए होते तो मेरी साधना अधूरी ही रह जाती।' आर्य स्थूलभद्र ने कहा। 'ओ महापुरुष! मैं संसार की उपासना में अंधी बन गई थी। आपको मैंने नहीं पहचाना। मेरे रूप पर, मेरी कला पर और मेरे चिर यौवन पर मैंने झूठा विश्वास किया था और वह भी अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए। मैंने यह भी नहीं सोचा कि मेरे स्वामी केवल मेरे बनकर ही क्यों रहें? इससे अच्छा है कि वे विश्व के स्वामी बनें।' ___ 'भाग्यवती! तुमने मेरे पर बहुत उपकार किया है। मैं इसे भूल ही नहीं सकता।' 'उपकार....' कोशा ने स्वाभाविक रूप से पूछ लिया। 'हां, भद्रे ! जैसे गुरु और माता-पिता उपकारी होते हैं, वैसे ही सन्मार्ग में दृढ़ रखने वाला व्यक्ति भी उपकारी होता है।' कोशा मुनि के उदार हृदय को देखती रही। उसके नयन सजल हो गए। कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात् कोशा ने कहा- 'भगवन् ! मेरे एकदो सन्देह हैं। आप उन्हें दूर करें।' 'प्रसन्नता से प्रकट करो, देवी! किन्तु आज तुम थक गई हो। कल पूछ लेना।' कोशा उठने लगी। किन्तु पैर लड़खड़ा गए। चित्रा ने उसे सहारा दिया। आज नारी पराजित हो गई थी। राजनर्तकी का विलय हो गया था। कलालक्ष्मी मिट गई थी। भारत की एक श्रेष्ठ राजनर्तकी भारत के एक साधु के समक्ष अपने गर्व का विसर्जन कर चुकी थी। संसार की उपासना का पराजय हुआ। उस शक्ति ने विजय का वरण किया जो शक्ति समस्त विश्व के कल्याण के अतिरिक्त और कोई कार्य नहीं करती। आर्य स्थूलभद्र और कोशा २७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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