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कोशा शय्या से उठकर वातायन के पास गई। अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था। वह और अधिक तीव्र हुआ। पवन के एक हिलोरे ने कोशा के वदन को भिगो दिया। बिजली की एक चमक ने कोशा का परिहास करते हुए कहाअरे चांद की स्पर्धा करने वाली रूपवती नारी ! तेरे रूप की यह पराजय ? एक समय था तेरे ही हृदय पर झूलने वाला तेरा प्रियतम, तेरे नयनों से देखने वाला, तेरा भोगी, तेरे चरणों पर चलने वाला तेरा साथी, क्या वह आज तेरे रूप का परिहास करने के लिए यहां आया है ? तेरे चरणों में अनेक सम्राटों के सिर झुकते हैं तो क्या यह नग्न मुनि तेरी छाया में रहकर भी अपना सिर ऊंचा किये चलेगा? यदि ऐसा होगा तो तेरे रूप और कला का मूल्य ही क्या रहेगा? संसार से रूप का गर्व अस्तंगत हो जाएगा और विलास का सुख लज्जा से श्याम हो जाएगा, ओ पगली नारी !
'विचारों ! दूर हो जाओ, दूर हो जाओ । ये मेरे स्वामी थे और आज भी स्वामी हैं और अनन्त युगों तक मेरे ही स्वामी बने रहेंगे। मेरी मूक प्रार्थना की शक्ति ही इन्हें खींच लायी है। कौन कहता है मेरी पराजय हुई है ?'
विचार बदला । उसने सोचा- यदि तेरी विजय है तो यह चित्रशाला में अकेला क्यों बैठता है ? सूर्यास्त के बाद तू इसके पास क्यों नहीं जा सकती ? इसका स्पर्श करते हुए तेरे हाथ क्यों कांप जाते हैं? यदि तेरी प्रार्थना के बल पर यह आया होता तो इस अंधेरी और बरसाती रात में तू अकेली क्यों सोती ? प्रार्थना का गीत छोड़ दे।
कल ही मैं इन्हें भवन में ले आऊंगी.... अपनी आंखों की पलकों पर बिठा लूंगी.... अपने प्राणों में जकड़ लूंगी... अपने हृदय में समा लूंगी।
कोशा के प्राण बोल उठे -पगली ! तू अकेली ही है.... तेरा स्वामी ही तेरा नहीं रहा... वापस आकर भी वह तेरा नहीं बना..... यह तेरा कौन है ? ऐसी भव्य समृद्धि, सुख के अनन्त उपकरण, विलास के अनन्त साधन, रूप-यौवन का अनन्त माधुर्य, सैकड़ों दास-दासी, राजनर्तकी और कलालक्ष्मी का गौरव - इतना सब कुछ होनेपर भी तू अकेली है रूपलक्ष्मी ! ये
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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