________________
सारी वस्तुएं तेरे घायल हृदय को नहीं सहला सकतीं । तेरे सामने यह नग्न-सत्य प्रकट हो चुका है, फिर तू किस आशा से यहां रह रही है ? हाय नारी, तू मिट नहीं गई, यही तेरा घोर पाप है ! तेरे हृदय की कोमलता न लुट गई, यही तेरा दुर्भाग्य है ।
शय्या से उठकर कोशा बाहर आयी। उसने देखा, एक परिचारिका सुख की नींद सो रही है। कोशा ने सोचा - ओह, कितना संतोष ! इसके वदन पर कितनी शांति है ! क्या इसका कोई प्रेमी नहीं है, स्वामी नहीं है ? क्या इसमें यौवन की तमन्ना नहीं है ?
घड़ी भर कोशा उस परिचारिका को देखती रही।
फिर उसने परिचारिका को उठाया । परिचारिका हड़बड़ा गई। घबराकर उठी और स्वामिनी के चरणों में गिर गई । कोशा बोली- 'जा, चित्रा को मेरे पास भेज दे ।'
कोशा शयनखण्ड में आयी ।
चित्रा ने आकर कहा - 'देवी ! क्या आज्ञा है ?'
कोशा ने पूछा- 'इतनी देर जाग रही थी ? क्यों ? क्या अस्वस्थ
है?'
'नहीं, आज उनके साथ शतायुध का खेल खेल रही थी ।' चित्रा ने संकोचवश कहा।
'किसके साथ ? उद्दालक के साथ ! चित्रा, तू भग्यवती है। जा... तेरा खेल 'पूरा कर....' कोशा ने कहा। उसके स्वर में वेदना थी ।
चित्रा स्वामिनी को देखती रही। स्वामिनी की पीड़ा उसके नयनों से बाहर झांक रही थी । चित्रा नयनों की भाषा समझती थी । वह एकटक कोशा के उतार-चढ़ाव को देखती रही ।
कोशा बोली- 'चित्रा ! विश्वामित्र ने साठ हजार वर्ष तक तपस्या की थी, किन्तु स्थूलभद्र की केवल एक वर्ष की तपस्या उससे महान बन गई है। तू जा....तेरा उद्दालक जाग रहा होगा, तेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा..... अपनी वेदना को मैं ही सहला लूंगी - तू जा.... ।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२५४
www.jainelibrary.org