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'गृहस्थ और त्यागी का साम्य कैसे हो सकता है?' 'क्या अभी तक आप मेरे मन की वेदना को नहीं जान पाए?'
'तुम जिसे वेदना मानती हो, मैं उसे वेदना नहीं मानता, एक भ्रम मानता हूं। भद्रे! जन्म को जीतने के लिए सर्वत्यागी होना जरूरी है। स्त्री, पुत्र, धन, वैभव के साथ रहना मुक्ति का राजमार्ग नहीं, यह तो एक पगडंडी है।' स्थूलभद्र ने इतना कहकर कोशा की ओर देखा।
कोशा स्वामी को देखती रही।
स्थूलभद्र बोला-'संयम का राजमार्ग अनेक बाधाओं से घिरा हुआ है। उसमें स्खलित होने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। आज मैं तुम्हारे कामगृह में रह रहा हूं। मेरे सामने अटूट वैभव और विलास के अनन्त साधन हैं। तुम्हारे जैसी रूपवती स्त्री मेरे पास एकान्त में आती-जाती है....और वह तुम मेरी पत्नी....इन सब प्रलोभनों के बीच यदि मैं अपने मन को चंचल होने से बचा सकू तो वह मेरी साधना है। इसी साधना को परिपक्व करने के लिए मैंने चातुर्मास के लिए यह स्थान चुना है। मुझे किसी भी मूल्य पर इस राजमार्ग पर चलना है, मन को पवित्र बनाए रखना है और साधना तो तेजस्वी बनाना है।'
कोशा बोली-'अच्छा, तो मुझे और प्रयत्न करने पड़ेंगे?' 'क्या तात्पर्य है ?'
'आपको राजमार्ग से खींचकर भवन में लाने का उपाय करना होगा। मैं आपके आस-पास और अधिक उत्तेजक विलास-सामग्री खड़ी करूंगी। नृत्य और गीत से आपको विचलित करूंगी। मैं अपनी सारी कला आपको पाने के लिए दांव पर लगा दूंगी।'
'भद्रे ! मैं तुम्हारे कार्य में बाधक नहीं बनूंगा। जितने भी विघ्न आएंगे, उन्हें मैं सहर्ष स्वीकार कर उनको अकिंचित्कर करने का प्रयत्न करूंगा। तुम तुम्हारा काम करोगी, मैं मेरा काम करूंगा।'
'मैं देखूगी, जीत किसकी होती है, नर की या नारी की ? साधु की या संसारी की? कोशा की या स्थूलभद्र की?'
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आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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