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४३. बन्धन-मुक्ति
रूप और यौवन के उपभोग की आशा लेकर सुकेतु कोशा के पास आया था। परन्तु प्रथम दिवस की चर्चा से वह अत्यन्त निराश हो गया, किन्तु उसकी आशा का धागा टूटा नहीं, उसे यह निश्चय था कि वह एक न एक दिन कोशा को प्रसन्न कर ही लेगा। रात्रि में सुकेतु मन ही मन अनेक उपाय खोजे और दूसरे ही दिन उसे विशेष प्रयोजनवश विदर्भ की ओर जाना पड़ा। इस आकस्मिक प्रयाण से उसे दु:ख तो हुआ परन्तु राजाज्ञा का पालन सर्वोपरि था।
विदर्भ की ओर प्रस्थान करने से पूर्व उसने कोशा से कहा- 'देवी! अकस्मात् मुझे राजकार्य के लिए विदर्भ जाना पड़ रहा है। वहां मुझे एक महीना लग जाएगा। इस बीच तुमको पूरा विचार कर लेना है। एक वैरागी की याद में अपने रसभरे जीवन को बर्बाद करने के बदले एक वीर व्यक्ति का साहचर्य प्राप्त कर जीवन को रसमय बनाना अधिक सार्थक होगा। इसी में तुम्हारा हित है। मुझे विश्वास है कि जब मैं विदर्भ से लौटूंगा तब तक तुम सब कुछ भूलकर मेरा स्वागत करने के लिए तत्पर हो जाओगी।'
कोशा बोली- 'यह प्रवास आपको यथार्थ को देखने का अवसर देगा। सती की मर्यादा का बोध आपको हो, ऐसा चाहती हूं। वैरागी का स्मरण ही मेरा सही धन है, यह आप अब तक समझ गए होंगे।'
सुकेतु ने विदर्भ की ओर प्रस्थान किया। एक महीने के बाद।
ग्रीष्म का प्रबल उत्ताप धरती पर अंगार बरसा रहा था। आम्रवाटिका रसभरे आमों से लदी हुई थी। कोकिल का पंचमनाद चारों दिशाओं को पागल बना रहा था। कोशा के प्राण स्थूलभद्र की प्रतीक्षा कर रहे थे।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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