Book Title: Arya Sthulabhadra aur Kosha
Author(s): Mohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 219
________________ 'इन प्रश्नों का उत्तर मैं बाद में दूंगा । कोशा! चलो, स्नान का समय हो गया है।' कहकर कोशा के कन्धे पर हाथ रखकर स्थूलभद्र उठा। स्थूलभद्र के इन भाव-परिवर्तनों से कोशा का मन व्यथित हो उठा। उसने सोचा-'आज स्वामीनाथ के मन में न उत्साह है और न आनन्द। वे बहुत अन्यमनस्क हो गए हैं। ऐसा क्यों हुआ है ? क्या पिता की मृत्यु का आघात इतना हृदय-वेधक हुआ है?' भोजन से निवृत्त हो दोनों विश्रामगृह में गए। कोशा ने स्वामी के कंधे पर हाथ रखकर कहा- 'आर्यपुत्र! आपका मन प्रसन्न करने के लिए मैं क्या करूं?' 'देवी, मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न है।' ‘ऐसा मुझे नहीं लगता। आप बहुत चिन्तातुर लगते हैं।' 'कोशा ! यथार्थ में मैं चिन्तामग्न नहीं हूं। मैं जानता हूं कि मृत्यु एक अनिवार्य घटना है....और मेरे पिताश्री ने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली थी...जो व्यक्ति मृत्यु को जीत लेता है, उसके लिए कैसा शोक? उसके लिए शोक करना उसका अपमान करना है....बलिदान पूजा का थाल है, शोक की अग्नि नहीं।' ... 'तो फिर आप इतने गंभीर क्यों दिख रहे हैं?' 'कोशा! मैंने तेरे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कहा था। अब मैं उनको स्पष्ट कर रहा हूं। प्रियतमे ! जो सुख देवताओं और सम्राटों को भी प्राप्त नहीं हैं, वे सुख मुझे तेरे सहवास से मिले हैं। उन अपार सुखों में मैं बारह वर्ष तक आकण्ठ डूबा रहा। मुझे पता ही नहीं चला कि बारह वर्ष कैसे बीत गए? जीवन के वसन्त मानो माया-मरीचिका में बीत गए। अचानक अब मैं जाग गया हूं। नींद टूट गई है। मैंने जिन्हें सुख माना, वे वास्तव में सुख थे ही नहीं।' 'स्वामी....' कोशा के प्राणों से वेदना की पुकार उठी। 'कोशा! चंचल मत हो। यदि तेरा निर्मल प्रेम नहीं मिलता तो मैं कभी नहीं जाग पाता। यदि तेरी अपार ममता नहीं होती तो मैं इस सुख को दु:ख का कारण मानने में सफल नहीं होता।' आर्यस्थूलभद्र और कोशा २०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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