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२८. षड्यंत्र
वररुचि की करुण पराजय से सुकेतु के दु:ख का पार नहीं रहा। कोशा को प्राप्त करने की अंतिम आशा भी क्षीण हो गई। वररुचि को सहयोग देने वाले अन्य मंत्रीगण भी शकडाल की अप्रत्याशित विजय से कांप उठे। दूसरे द्वेषी जन भी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चिन्ता के सागर में डूब गए।
ललाट पर पराजय का श्याम चन्द्रक धारण कर वररुचि एकान्त में चला गया। वह सही था। उसका काव्य सही था, नया था, फिर भी उसे शकडाल के समक्ष पराजित होना पड़ा। इतना ही नहीं, सदा के लिए वह सम्राट् का विश्वास खो बैठा । यह दुःख उसे अत्यन्त पीड़ित कर रहा था। मगधेश्वर को हस्तगत कर अनेक कार्य सम्पादित करने का उसने स्वर्णिम स्वप्न संजोया था। किन्तु महामंत्री ने एक ही इशारे से उसके स्वप्न को मिट्टी में मिला दिया।
तीन-तीन महीने तक एकांतवास में रहकर वररुचि ने अनेक योजनाएं बनाईं। शकडाल को वह अब परम शत्रु मानने लगा। बुद्धिबल
और प्रपंच की रचना से शकडाल ने विजय प्राप्त की थी। इस विजय का बदला लेने की तीव्र आग वररुचि के मन में दावानल की भांति सुलग रही थी। इस दावानल को शान्त करने के लिए उसने अनेक विकल्प सोचे, अनेक योजनाएं बनाईं। किन्तु लोकदृष्टि में उसकी प्रतिष्ठा गिर चुकी थी। और बिना प्रतिष्ठा प्राप्त किए वे योजनाएं सफल नहीं हो सकती थीं। प्रतिशोध की आग में यह झुलस रहा था।
खोयी हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए सुकेतु का सहयोग आवश्यक था। वह अत्यन्त निराश हो चुका था। क्या वह सहयोग देगा? महामंत्री के प्रति द्वेष रखने वाले अन्य मंत्रीजन क्या पुन: मेरी पीठ थपथपाएंगे?
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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