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वे सम्राट् के आसन के पास गए। सम्राट् के नयनों में सन्देह का हलाहल भरा हुआ था। महामंत्री शकडाल के मुंह में तालपुट विष भरा था।
महामंत्री ने मगधेश्वर और महादेवी के चरणों में अपना मस्तक नमाया। उस समय उनके अन्त:करण में चतु:शरण की भावना क्रीड़ा कर रही थी- 'अरहते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवजामि, साहू सरणं पवजामि, केवलि पन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि'-मुझे अरहंत की शरण हो, सिद्ध की शरण हो, साधु की शरण हो, धर्म की शरण हो।
__ महामंत्री का मस्तक सम्राट् के चरणों में पहुंचे, उससे पूर्व ही पास में खड़े श्रीयक ने अपनी तेज तलवार का प्रहार किया और सबके देखते-देखते महामंत्री का सिर धड़ से अलग हो सम्राट् के चरणों के पास लुढक गया।
महामात्य शकडाल के रक्त से मगध का सिंहासन रक्त-रंजित हो गया।
धड़ नीचे ढह पड़ा। रक्त का प्रवाह महामंत्री की पवित्रता की गाथा कहता हुआ फर्श पर छितरने लगा।
राजसभा के सभी सभासद् आश्चर्यविमूढ़ हो अवाक रह गए। महादेवी चीख पड़ी। वह चीख सम्राट् के हृदय पर वज्राघात कर
गई।
श्रीयक का हृदय धूज रहा था, पैर प्रकंपित थे और नयन छलक रहे थे। वह एकटक पिता के मस्तक की ओर देखता रहा।
सम्राट् ने सुलगती आंखों से श्रीयक की ओर देखकर कहा 'श्रीयक! यह क्या कर डाला?'
सारी सभा श्रीयक का उत्तर सुनने के लिए उत्सुक हो रही थी।
श्रीयक बोला- 'कृपावतार ! मैं आपका अंगरक्षक हूं। आपकी रक्षा करना मेरा परम धर्म है। जब मगधेश्वर को यह विश्वास हो गया कि महामंत्री सम्राट का विनाश कर राजसिंहासन हड़पना चाहता है तो मेरा
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आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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