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'रूपा! तुझे प्राप्त करने से पूर्व मैंने निर्णय किया था कि मुझे सदा स्त्री-जाति से दूर रहना है। मेरे हृदय में स्त्री-जाति के प्रति कोई स्थान नहीं था। मैंने समझ रखा था-जीवन-नैया को डुबोने वाली, संसार में प्रलय लाने वाली और समस्त दोषों की जड़ है नारी! तेरे संयोग से मुझे दूसरा ही सत्य मिला।'
__'कैसा सत्य?' हंसते हुए कोशा ने स्वामी के नयनों में झांका । नयनों में नारीत्व का विजय और आदर्श पत्नी का गर्व झांक रहा था।
'तेरी प्राप्ति से समझ सका हूं कि नारी संसार का आदर्श है। जीवन की शीतल छाया नारी में है। जीवन की शक्ति और जगत् की प्रेरणा केवल नारी में ही है, दूसरे में नहीं।'
कोशा ने मन-ही-मन अपने को धन्य माना। वह बोली-'अभी तो हमें गंगा के किनारे जाना है। विलम्ब होने पर यात्रा अधूरी रह जाएगी।'
स्थूलभद्र ने कोशा को बाहुपाश में लेते हुए कहा-'इन्हीं आशाओं और स्वप्नों के मध्य हमारा जीवन अनन्त हो, यही कामना है।'
दोनों जब प्रांगण में आए तब उद्दालक ने निकट आकर कहा'उज्जयिनी के संघाराम से एक दूत संदेश लेकर आया है।'
'उज्जयिनी के संघाराम से?' कोशा ने प्रश्न किया। 'हां, वह आचार्य कुमारदेव का संदेश लेकर आया है।'
'ओह! तू उसे मानपूर्वक अतिथिगृह में ले जा, उसकी उचित व्यवस्था कर । दो-चार घटिकाओं के बाद उसे मेरे पास ले आना' कहकर कोशा और स्थूलभद्र दोनों गंगा के किनारे जाने के लिए उपस्थित हो गए।
घाट पर कोशा की स्वर्ण-जटित नौका तैयार थी। दोनों उसमें बैठे और सामने वाले किनारे की ओर चल पड़े। किनारा आया। दोनों नीचे उतर गए।
ग्रीष्म का उत्ताप मंद हो चुका था। गगन में नक्षत्र हंस रहे थे। दोनों सृष्टि के सौन्दर्य को आंखों से पीते हुए उपवन में गए। हंसनेत्रा पीछे-पीछे आ रही थी। दूसरी कोई परिचारिका साथ नहीं थी।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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