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'आज मुझे यह ज्ञात हो रहा है कि मुझे ऐसा प्रयोग नहीं करना चाहिए था।' कोशा ने टसकते हुए कहा।
'रूप! तूने कुछ भी अनुचित नहीं किया है। औषधि-प्रयोग के लिए मेरी पूर्ण सहमति थी। इस सहमति के पीछे भी मेरा स्वार्थ था।'
'कैसा स्वार्थ ? मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।' _ 'तू मेरी है। प्राणों से भी अधिक प्रिय। मेरी आंखों के सामने तू चिरकाल तक इसी सौन्दर्य और लावण्य से भरपूर दीखती रहे-क्या मैं इसे नहीं चाहता?' स्थूलभद्र ने कोशा के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा।
'ओह! आप तो बहुत गहरे हैं'-कहती हुई कोशा ने स्थूलभद्र के वक्षस्थल पर अपना मुंह छिपा लिया।
दोनों शयनकक्ष में चले आए।
दोनों दो आसनों पर बैठ गए। एक-दूसरे को निहारने लगे। कोशा ने तिरछी नजरों से स्वामी की ओर देखा । स्थूलभद्र अपनी देवी के सुकुमार और यौवन से भरे देह को एकदृष्टि से देख ही रहा था। थोड़ी देर तक दोनों ओर मौन रहा। फिर कोशा ने कहा
'क्या देख रहे हैं?' 'मेरे सद्भाग्य को।'
'अच्छा, आप अपने शयनगृह में जाएं, अन्यथा मैं पागल हो जाऊंगी।'
'काव्य कभी पागल नहीं होता, दूसरों को पागल बनाता है।' 'यदि काव्य के नशा हो तो?' कोशा ने उत्तर दिया।
'नहीं, कोशा! मदिरा की पागलता क्षण भर ही होती है। किन्तु निर्मलता की पागलता जीवन भर की होती है।'
कोशा ने स्वामी के चरणों में मस्तक नवाया। स्थूलभद्र अपने शयनकक्ष में चला गया। इक्कीस दिन से दोनों अलग-अलग सो रहे थे।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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