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में सर्प-फणों की छाया में बैठे भवन वासी देव भयार्त स्वर में भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं।
आठवीं सभा में मायिक सौन्दर्य से सदा चंचल रहने वाले व्यन्तर देव, एकाएक स्थिर हो गये हैं। वे बोध पाने को समुत्सुक बैठे हैं । उन्हें नहीं पता है, कि वे यहाँ क्यों आये हैं। फिर भी वे पृच्छा के कौतूहल से स्तब्ध ताक रहे हैं। नवमी सभा में सूर्य-चन्द्र, तारालोकों के वासी ज्योतिष देव बैठे हैं। त्रिलोक-सूर्य के प्रभा-मण्डल में लीन हो कर, वे और भी अधिक प्रकाशमान होने को व्याकुल हैं। दसवीं सभा में भगवान के आत्मज-स्वरूप परम सुन्दर, सुखी सौधर्म आदि स्वर्गों के कल्पवासी देव बैठे हैं। उनके विमानों की छतों पर ग्रैवयेक, अनुदिश और सर्वार्थसिद्धियों के वासी उच्चात्मा देवर्षि बैठे हैं। वे भगवान के पद-नखों में अपने स्वरूप-दर्शन को व्याकुल हैं।
ग्यारहवीं सभा में चक्रवर्ती, राजा, राजवंशी, श्रेष्ठि और सर्व-सामान्य सारे ही नर-नारी समान भाव से बैठे हैं । यहाँ उनके बीच वर्ग, पदस्थ, प्रतिष्ठा, सत्ता, सम्पत्ति, वैभव की दीवारें नहीं हैं । यह सार्वभौमिक मनुष्य का राज्य है । यहाँ जन-जन अपना ही राजा है, अपना ही स्वामी है । कोई किसी से छोटा नहीं है। कोई किसी के अधीन नहीं।
बारहवें प्रकोष्ठ में तिथंच पशु-पक्षियों का विशाल साम्राज्य उपस्थित है । लोकालय, जंगल, पर्वत, नदी-समुद्र, बिल-बाम्बी और खतरे की घाटियों से निकलनिकल कर के यहाँ एकत्र उमड़ पड़े हैं । गाय, भैंस, चौपाये, सिंह, हरिन, रीछ, भेड़िये, अष्टापद, सर्प, मयूर, नकुल, खरगोश-सब का ऐसा शम्भू-मेला कभी देखने में न आया । वन-वनान्तर के रंग-बिरंगे मासूम पंखी अष्टापद के अयाल-वन में निर्भय कलरव कर रहे हैं।
गाय के स्तनों की दूध भरी ऊष्मा में सिंह गुडी-मुड़ी हो कर सो गये हैं। गौवत्स सिंहनी का दूध पी रहे हैं। मृगी व्याघ्र के आलिंगन में सुख से अचेत हो गयी है। ___ गरुड़ महाविष्णु का वाहन बनने को तत्पर पंख पसारे है । और उसकी टाँगों में सर्प लिपट रहे हैं । नाचते मयूर की नीली-हरी पंख-प्रभा में वासुकी नाग चित्र-लिखित-सा रह गया है । रीछों के गर्म झबरीले लोमों में, लावा पक्षियों ने नीड़ बाँध लिये हैं । जलाशयों से बाहर निकल कर मगर, मच्छ, कछुवे बड़े सुख से धूप सेंक रहे हैं । अवकाश की लहरों में रंग-बिरंगी मछलियाँ उन्मुक्त तैरती हुई गन्धकुटी के पादमूल में विलीन हो रही हैं।
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