Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 398
________________ यही महावीर के व्यक्तित्व का मूल स्वर और स्वरूप है। यही सारे आगमों में, और 'समयसार' जैसे जैन अध्यात्म के अनुमव-सिद्ध ग्रंथ में आज भी ज्यों का त्यों उपलब्ध है। इसी मूल स्रोत से उपलब्ध महावीर को, मैंने आज के मनुष्य की वस्तुस्थिति और मनःस्थिति की भूमिका पर फिर से रचा है। आज के मनुष्य के मनोविज्ञान और चेतना के साथ जो महावीर तदाकार न हो सके, उसे आखिर आज का कोई आदमी क्यों पढ़ना चाहेगा ? ये महावीर व्यक्ति के बाह्य को नहीं उसके अभ्यन्तर को देखते हैं। ये मनुष्य के दिखावटी नैतिक आचार से नहीं, उसकी अन्तश्चेतना से उसके चारित्र्य का निर्णय करते हैं। इसी से तो चरम अहंकार की प्रतिमूर्ति और सत्ता तथा सुन्दरी के उच्छंखल दुर्दान्त विलासी सम्राट श्रेणिक को उसके तमाम अनाचारों के बावजूद, महावीर आरम्भ से ही प्यार करते हैं। और स्वयम् महावीर की हत्या के संकल्प से प्रमत्त उस सम्राट के सामने आते ही, क्षण मात्र में प्रभु उसका ग्रंथिमोचन कर देते हैं। सुरा, सुन्दरी और संगीत में डूबे वत्सराज उदयन को वे त्याग-विराग का उपदेश नहीं देते। उसके उस सारे कला-विलास और सौन्दर्य -विलास को ही 'योग' कह कर स्वीकार लेते हैं । लेकिन भीतरी चेतना में अनायास उसे अनासक्त और मुक्त कर देते हैं। अनवद्या प्रियदर्शना को लोक में अपनी एकमेव बेटी के रूप में उन्होंने पाया था, लेकिन जब अपने पति जमालि सहित वे प्रभु के श्रमण-श्रमणी हो कर रहे, और जब जमालि ने प्रभु का द्रोही हो कर संघ त्याग दिया, तो स्वयम् भगवान ने प्रियदर्शना को आदेश दिया कि जमालि का अनुसरण करो, उसकी कवच होकर उसके साथ रहो। श्रमण-श्रमणी होने पर भी पूर्वाश्रम का अनुरागबन्ध उनके बीच बना हुआ था। प्रभु ने उसे तोड़ा नहीं। उसी की राह दोनों को अपना कर, उनकी उस अटूट प्रीति के माध्यम से ही उन्हें अपनी मुक्ति का मार्ग दिखा दिया। यह रूढ़ नैतिक आचारवादियों को विचित्र और दुराचार मूलक भी लग सकता है । क्यों कि उनकी दृष्टि बहुत सीमित हैं, वे अज्ञान में हैं। वे महावीर और उनके अध्यात्म से परिचित नहीं । दृष्टि में निश्चय (विशुद्ध आत्मानुभूति) और व्यवहार में उससे फलित आचार : महावीर की निश्चय और व्यवहारगत जीवन-दृष्टि इस एक वाक्य में सम्पूर्ण समाहित है। .. - रूढ़ नैतिकता से जकड़े कट्टर साम्प्रदायिक जनों को, जो केवल शब्द के रूढार्थ से चिपटे हैं, उसकी भावार्थक व्याप्ति में जिनकी पहोंच नहीं, उन्हें मेरे उपयुक्त महावीर-वर्तन से आघात पहुंच सकता है। वह जरूरी भी है। पूर्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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