Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 396
________________ इसी सम्यक् वस्तुस्थिति में से सम्यक् आचार या चारित्र्य प्रकट हो सकता है। कहना चाहता हूँ कि आत्मा में से आचार आता है, आचार से आत्मा नहीं मिलती। पहले हम अपने को सही जान, तमी तो औरों के साथ हम सही सलक कर सकेंगे। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद और श्री अरविन्द तक का अध्यात्म प्रकृत रूप में यही है। इसी में से उनके स्वयम् के उदाहरण द्वारा, आचारमार्ग स्वतः प्रवाहित हुआ। लेकिन जब हर आत्म-पुरुष के नाम पर सम्प्रदाय बना, धर्मायतन बने, पट्टाधीशों की गदियाँ बिछी, तो जो मूल स्रोत आत्म या अधि-आत्म या आत्मज्ञान है, वह तो लुप्त हो गया । और उससे कट कर बना रह गया केवल रूढ़-नैतिक आचार-मार्ग, तथा विधि-निषेध (यह करो, वह मत करो) का निर्जीव और खोखला विधान । जिसकी ओट में सदी-दर-सदी अज्ञान और पाखण्ड की अमरबेल बढ़ती गई, शोषण की एक पुरुता और अटल व्यापारिक कोठी स्थापित हो गई। वर्तमान वैज्ञानिक युग के प्रबुद्ध और जागृत पुरुष ने इस सारे संस्थायित धर्म के पाखण्ड को बेनकाब कर के नकार दिया है। वह अपनी आत्मिक मुक्ति के लिये अब धर्म को कन्सल्ट नहीं करता, अपनी अन्तर-आत्मा को कन्सल्ट करता है। अपनी और सर्व को मुक्ति का मार्ग आज वह अपने सीधे संघर्ष, जीवनानुभव और उससे अजित अपनी सर्वतंत्र-स्वतन्त्र प्रज्ञा में से खोज रहा है। इस खोज में से जो आचार स्वतः प्रकट होता है, वही आज के मनुष्य का अभिप्रेत और अमीष्ट हो सकता है। असलियत में हर अवतार, तीर्थकर या पैगम्बर का मी मुक्तिमार्ग ऐसा ही था। अज्ञानी अनुयायियों ने अपने स्वार्थ, लोम और अहंकार में उसे जकड़ कर, उसकी निसर्ग और सहज धारा को अवरूद्ध कर दिया है। अपनी इसी स्वानुभव से अजित प्रज्ञा और मुमुक्षा की तीव्रता में से मैंने महावीर को, अपने लिये और अपने समय के संसार के लिये 'रिडिस्कवर'पुनरुद्घाटित किया है। इसी से मेरे महावीर ने प्रथमतः सारे प्रस्थापित रूढ़ आचार-मार्ग को नकार दिया है। उनका आधारिक सूत्र है-पहले अपने को ठीक जानो, तो सब को ठीक जान सकोगे, और सब के साथ ठीक वर्तन कर सकोगे। मेरे महावीर ने प्राथमिकता आत्मज्ञान को दी है, आचार को नहीं। सही आत्मज्ञान होने पर उसमें से सही आचार स्वतः प्रकट होता है। एक खास आचारसंहिता के पालन से आत्मज्ञान नहीं हो सकता। आध्यात्मिकता नैतिकता नहीं है : वह हर नये देश-काल-व्यक्ति के अनुरूप नयी नैतिकता की निर्णायक है। और यह निर्णय आचार-संहिताओं में नहीं बँध सकता, जीवन के अनुपल आचार में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410