Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 403
________________ ४५ चाहती हैं, पर ये उन अग्नि परीक्षाओं में से अविचल पार उतर कर, मरणोपरान्त उच्च देवलोकों में जन्म लेते हैं। यह प्रक्रिया इतनी रूढ़ और पालतू क़िस्म की है, कि इसको ज्यों का त्यों रचना आज के सन्दर्भ में सर्वथा अप्रासंगिक और खोखला जान पड़ा । इन दसों उपासकों की कथाएँ लगभग एक जैसी हैं। सो मैंने केवल श्रावक - शिरोमणि आनन्द गृहपति के आख्यान को प्रतीक रूप में चुन कर, उसे एक युगानुरूप मोड़, मन्तव्य और आशय प्रदान किया है। आनन्द गृहपति बेशक अपनी मूल चेतना में एक उच्चात्मा और सच्चा मुमुक्षु है। वह अपनी सम्पदा और भोग से ऊब गया है। उसमें शाश्वत सुख के लिये एक तीव्र पुकार जागी है। वह शास्त्र और श्रमण से सुने धर्म की रूढ़ी के अनुसार, अपने व्रत-त्याग की एक लम्बी सूची मन ही मन बना लाता है, और भगवान के आगे उसे निवेदन कर उनकी श्रावक - दीक्षा पाना चाहता है। भगवान उस व्रत-त्याग की सूची से सर्वथा अप्रभावित रहते हैं । आनन्द को उनसे कोई प्रतिसाद ( रेस्पॉन्स ) या उत्तर नहीं मिलता। भगवान एकदम कठोर, निश्चल और उदासीन हैं--उसके लम्बे व्रत - व्याख्यान के प्रति । आनन्द निराश और नाराज हो जाता है । तभी हठात् भगवान कहते सुनाई पड़ते हैं. 'जो मूल में ही तेरा नहीं, उसका त्याग कैसा, आनन्द ? ....' यहाँ से आरम्भ हो कर भगवान के साथ जो आनन्द गृहपति का लम्बा वार्तालाप होता है, उसमें शास्ता अर्हत् महावीर अपनी खरधार सत्य वाणी से उसके व्रतों की सारी तालिका को छेक देते हैं । उसे 'रिजेक्ट' कर देते हैं। उसे बुनियादी तौर पर ही निराधार, नाजायज़ और गैरकानूनी क़रार दे देते हैं। वे उस सारे व्रत-त्याग के पीछे छुपे 'स्वामित्व' के अहंकार-ममकार को उजागर कर देते हैं । वस्तु-स्वभाव ही धर्म है । परिग्रह, अधिकार, मालिकी वस्तु स्वभाव के विरुद्ध है । अत: वह अधर्म है । वह धर्म और आत्मा के साथ दगाबाजी है। इस तरह जिनेश्वरों द्वारा साक्षात्कृत सत्ता - स्वरूप और वस्तु-स्वभाव के आधार पर ही महावीर, इतिहास में आदि से अन्त तक व्याप्त सत्ता- सम्पत्ति - स्वामित्व मात्र को नकार देते हैं, काट देते हैं । उसे मनुष्य द्वारा मनुष्य के विरुद्ध जघन्यतम अपराध क़रार दे देते हैं। जिनेश्वरों ने राग-ममकार और परिग्रह को ही सारे पापों का मूल बताया है। इस प्रस्थापना के आधार पर, मार्क्स महावीर के ही एक वर्तमान आयाम के रूप में प्रकट हो उठते हैं। मार्स की यदि सीमाएँ हैं, तो वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, tre के अनुसार स्वाभाविक और अनिवार्य हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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