Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 407
________________ की ध्रुव चट्टान पर अविचल खड़ा कर दिया है। एक ऐसी गहराई भीतर खुलती जा रही है, जिसमें सारे द्वंद्व, विकल्प, अनायास विसर्जित होते दिखाई पड़ते हैं। अब मेरे मन में कोई प्रश्न यो सन्देह नहीं उठता। जो है सो है, यथास्थान । और मैं मानो यथा-प्रसंग बेहिचक ठीक कार्यवाही करता जा रहा हूँ । इतना यदि हो सका है, तो कृति की अन्य किसी सफलता का मैं क़ायल नहीं । ४९ आश्चर्यो का आश्चर्य तो यह है, कि प्रशिष्ठ (सॉफ़िस्टीकेटेड) पाठक इस किताब को अक्सर दुरूह और सामान्य पाठक की पहोंच के बाहर कहते सुने जाते हैं, जब कि वास्तविकता यह है कि यह रचना सच्चे भावक और रसिक क़िस्म के सर्व सामान्य पाठकों के बीच ही अधिक लोकप्रिय होती दिखाई पड़ रही है। उन्हें इसमें गहरा रस और समाधान मिलता है। मेरे ये नाम अज्ञात पाठक ही मेरे सच्चे आत्मीय भावक, और मेरी कृति के असली मूल्यांकनकार हैं । महाकाल की धारा में यही मूल्यांकन टिकने वाला है। मेरे ये अनजान दरदी और मरमी, जब चाहें मुझे तलब कर सकते हैं। उनके प्रति मेरी कृतज्ञता शब्द से परे है । श्री माँ जन्मशती दिवस ; २१ फरवरी, १६७८ गोविन्द निवास, सरोजिनी रोड, विले पारले (पश्चिम), बम्बई - ५६ Jain Educationa International - वीरेन्द्रकुमार जैन For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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