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कैसे बन सकता है ?" वस्तुतः कोई भी ज्योतिर्वर या दृष्टा मूलतः सिद्धान्तकार होता ही नहीं, वह सत्ता का एक साक्षात्कारी, स्वानुभवी दृष्टा और साक्षी ही होता है । उसकी बोधवाणी की शब्द- सीमा से ग्रस्त हो कर, बाद को उसके अनुयायी उसके नाम पर सिद्धान्त रचते हैं, और सम्प्रदाय चलाते हैं । महावीर ने बार-बार अपने पास आने वाले मुमुक्षुओं से कहा है : 'मा परिबन्धम् करेह ।' 'कोई प्रतिबन्ध नहीं ।' 'यथा सुखा:' 'जिसमें तुझे सुख लगे, वही कर । वे अनैकान्तिक कैवल्य - पुरुष किसी को बाँधते नहीं, आदेश नहीं देते। वे हर आत्मा को यह स्वतंत्रता देते हैं, कि अपने जीवन और मुक्तिपथ का निर्णय वह स्वयम् करे, अपने स्वानुभव में से ही अपना मुक्तिमार्ग प्रशस्त करे ।
ऐसे कुछ मूलभूत उपादान महावीर के व्यक्तित्व और कृतित्व में उपलब्ध हैं, जिनके आधार पर महावीर को एक विश्व- पुरुष के रूप में रचने में मुझे बहुत सुविधा हो गयी है । मेरी आत्यन्तिक स्वतंत्र चेतना, महावीर - दर्शन की इस मूलगत गत्यात्मकता ( डायनमिज़्म) का अन्वेषण करने में पर्याप्त रूप से वेधक और सहायक सिद्ध हुई है। महावीर मेरे लिये प्रमुखतः इस रचना में एक माध्यम हैं, शाश्वत कैवल्य - ज्योति का एक महाद्वार हैं, जिसके द्वारा मैंने चिर स्वतन्त्रा, चिरन्तन् गतिमती, अनन्त आयामी महासत्ता का एक गतिमान साक्षात्कार किया है । महावीर में वह आन्तरिक महा अवकाश मुझे मिल सका, जो सर्वतोमुखी और सर्वसमावेशी है। प्रसिद्ध आधुनिक समीक्षक श्री प्रभातकुमार त्रिपाठी ने एक बहुत मार्के की बात कही है। उनका कथन है कि 'अनुत्तर योगी वस्तुतः कोई महावीर जीवनी नहीं है, वह रचनाकार वीरेन्द्र द्वारा महावीर के भीतर की कविता की तलाश है।' इस एक वाक्य में इस ग्रन्थ को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की एक सम्पूर्ण कुंजी हाथ आ जाती है ।
भक्ति, शक्ति, ज्ञान, कर्म आदि, बहुमुखी चेतना की स्वाभाविक स्फुरणाएँ और प्रवृत्तियाँ हैं । वेद-वेदान्त, वैष्णव- शैव-शाक्त आदि प्रत्येक विशिष्ट साधना-मार्ग में उक्त प्रवृत्तियों में से किसी एक पर आत्यन्तिक भार दिया गया है । लेकिन ये सारे रास्ते अन्ततः उसी एक परम लक्ष्य पर पहुँचते हैं। मुझ में स्वभाव से ही प्रेम, सम्वेदन, सौन्दर्य, भाव, भक्ति, शाक्त, ज्ञान और सृजन की विविध चेतनाएँ एक साथ और एकाग्र रूप से सजग रही हैं । इन सभी के द्वारा मुझे परम तत्त्व का स्पर्श और समाधान यथा प्रसंग मिलता रहा है। इसी कारण मुझ में वैष्णव, शैव, शाक्त भाव सदा यकसा प्रस्फुरित होते रहे। ईसा, मोहम्मद, जरथुस्त्र और लाओत्स मुझे कृष्ण, महावीर या बुद्ध से जरा भी कम प्रिय नहीं । श्रीगुरू कृपा के उन्मेष से मुझे इन सभी के धर्मा
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