________________
३२
मात्र एक अपवाद-स्वरूप सीमित घटना भर है । वे यह न देख पाये, कि श्रेणिक के रूप में एक इकाई के माध्यम से, और अन्य सारे ही पात्रों के निमित्त से, भगवान ने उस एकान्तिक, अन्तर्मुख तपस्याकाल में भी, अपनी चिदग्नि से वैश्विक चेतना स्तर पर, एक तलगामी अतिक्रान्ति का अचूक सूत्रपात कर दिया था। मंखलि गोशालक, श्रेणिक, चेलना, चन्दना, त्रिशला तथा भगवान को नाना प्राणहारी उपसर्गों द्वारा पीड़ित करने वाले यक्षोंपिशाचों, मानवों देवों-दानवों, पशुओं तक में, उन प्रभु ने चेतनिक रूपान्तर घटित कर के मौलिक अतिक्रान्ति का अचुनौत्य प्रमाण उपस्थित कर दिया था। एक प्रकार से देवी, दानवी, मानवी, पाशवी और प्राकृतिक शक्तियों के निरन्तर संघर्ष - राज्य में, उन्होंने अपने समत्व और संवेग की आत्मिक प्रीति से, सम्वाद और समवाद की अन्तश्चेतना के गहरे अग्नि-बीज डाल दिये थे ।
विकास सपाट काल- रेखा में नहीं होता, वह एक 'सायक्लिक' यानी चावर्ती प्रक्रिया है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के कालचक्र मी लाखोंकरोड़ों वर्षों से गुजर कर ही पतन या उत्थान के क्रम को चरम तक पहुँचा पाते हैं। वर्तमान के मूतविज्ञान, प्राणिविज्ञान, मनोविज्ञान और अब परामनोविज्ञान तथा इतिहास - विज्ञान तक, लगभग काल चक्र की इस प्रक्रिया पर सहमत दिखाई पड़ते हैं। पश्चिम के सृजना क्षेत्रों में भी इस काल-प्रक्रिया का कलाओं में अनायास समावेश लक्षित होने लगा है। इस वस्तु-स्थिति के परिप्रेक्ष्य में यह समझना होगा, कि महावीर जैसे कालोत्तर और लोकोत्तर अकाल पुरुष की प्रतिश्रुत अतिक्रान्ति के स्थूल प्रत्यक्ष परिणामों को कुछ वर्षों या सदियों के सपाट और सीमित पट की परिधि में मूर्तं प्रत्यक्ष देखने की प्रत्याशा करना ही अपने आप में एक बहुत मोटे और सपाट नजरिये का द्योतक है।
महावीर, बेशक, प्रथम खण्ड में ही अर्थ-राज-समाजनीतिक अतिक्रान्ति और रूपान्तर का भी अचूक उद्घोष और विधान करते सुनाई पड़ते हैं । लेकिन साथ ही उसकी विधि और प्रक्रिया का जो चेतनात्मक मार्ग वे आविष्कार करते हैं, उसे मी नजरन्दाज़ नहीं करना चाहिये । स्थूल और अस्थायी क्रान्ति बेशक बहुत सतही कालपट पर घटित हो सकती है, और उतनी ही तेजी से विफल और विघटित भी । और महावीर की मूलगामी अतिक्रान्ति को, इस सतही क्रान्ति के सदृश्य या इससे मिला कर देखना, बेहद परिमित और उलझी ( कॉन्फ्यूज्ड) दृष्टि का सूचक है। पश्चिम के जैव
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org