Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 382
________________ वस्तुतः मैंने प्रसंगात् महावीर को माध्यम रूप में स्वीकार करके, मुक्त और शाश्वत चैतन्य-पुरुष की जययात्रा का आख्यान ही 'अनुत्तर योगी' में लिखा है। परम्परागत प्रामाणिक स्रोतों से महावीर द्वारा उपदिष्ट तत्वज्ञान, अध्यात्म और जीवन-दर्शन के जो आधारिक सूत्र उपलब्ध होते हैं, और उनके द्वारा महावीर के व्यक्तित्व का जो साक्षात्कार होता है, उसमें पर्याप्त मात्रा में ऐसे मौलिक तत्त्व मौजूद हैं, जो एक चिरन्तन् गतिमत्ता और प्रगतिशीलता का समर्थन करते हैं। मसलन महावीर द्वारा साक्षात्कृत सत्ता-स्वरूप, वस्तु-स्वरूप और अनेकान्त ऐसे स्रोत हैं, जो हमारे गतिमान जीवनानुभव में हर पल प्रत्यक्ष होते हैं । सत्ता या वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवत्व एक साथ सतत विद्यमान हैं। कुछ निरन्तर बदल रहा है, तो कुछ ऐसा भी है जो सदा ध्रव और स्थायी है। गति है तो स्थिति भी है। दोनों मिलकर ही सम्पूर्ण और संयुक्त सत्य है । पदार्थ मूलतः ध्रुव है, तभी तो उसमें नये-नये परिणाम, रूप-पर्यायों तथा मूल्यों का सृजन सम्भव है। गौर करने पर सत्ता की यह निसर्ग स्थिति प्रत्यक्ष अनुभव में आती है। सत्ता जब अनन्त गुण-पर्याय-धर्मा है, तो वह अपनी मौलिक स्थिति में ही अनेकान्तिक है, अर्थात् अनेक-धर्मा है, अनेक-रूपा है, नानामुखी है, बहुआयामी है । तो उसकी अभिव्यक्ति भी अनंकान्तिक ही हो सकती है। शब्द की सीमा में, एक बार में वस्तु का एकदेश कथन ही सम्भव है। इसी से उसका आकलन सापेक्ष ही होना चाहिये। शब्द में अन्तिम और सम्पूर्ण कथन सम्भव ही नहीं। इसके माने ये हुए कि यह जो नित्य गति-प्रगति-विकासमान विश्व हमारे सामने है, इसका निर्णय और मूल्यांकन अपनी ठीक आज की ज्ञान-चेतना से करने को हम पूर्ण स्वतंत्र हैं। महावीर के सत्ता-स्वरूप और अनेकान्त में इसके लिये सम्पूर्ण समर्थन उपलब्ध होता है । मैंने प्रणालीबद्ध जैन दर्शन को इस कृति में अवकाश ही नहीं दिया है। महावीर सत्ता को, पदार्थ को, जीवन-जगत को टीक अपने सामने रख कर, अपने कैवल्य में उसका प्रतिपल नव्यतर साक्षात्कार करते हुए उसी की प्रतिध्वनि के रूप में बोलते और वर्तन करते दिखाई पड़ते हैं । मानो कि व्यक्ति महावीर नहीं, स्वयम् महासत्ता बोल रही है, सामने खुल रही है, अचूक कार्य कर रही है। मेरे महावीर सिद्धान्तकार नहीं, कैवल्य-ज्योति से आलोकित त्रिकालाबाधित ज्ञान के मूर्तिमान स्वरूप और दृष्टा हैं । उन्होंने स्वयम् भी प्रथम खण्ड में एक जगह कहा है : ‘सत्ता अनंकान्तिक है, और अनेकान्त का सिद्धान्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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