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यतनों में एक-सी अन्तर-सुख की स्फुरणा और रोमांचन अनुभव होता है। यही कारण है कि कई अच्छे मर्मी और सम्वेदनशील पाठकों ने मेरे महावीर में, शंकर, मवानी, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, परमहंस, रमण महर्षि, श्री अरविन्द, श्री नित्यानन्द-मुवतानन्द, यहाँ तक कि आज के मार्क्स, फॉयड, जुंग और आइन्स्टीन-सब को यथास्थान प्रतिविम्बित पाया और संयुक्त रूप से अनुभव किया है । मेरी इस मौलिक चेतना स्थिति के प्रकाश में यह स्पष्ट है, कि मुझ में किसी भी प्रकार की बाहरी प्रतिबद्धता या साम्प्रदायिक पूर्वग्रह सम्भव ही नहीं।
कुछ समीक्षकों ने ‘अनुत्तरयोगी' में साम्प्रदायिक अमिनिवेश को चीन्हनने की चेष्टा की है। पर यह मुझे उन्हीं के अवबोधन और ग्रहण की सीमा लगती है। उनमें स्वयम् में कहीं कोई अवचेतनिक साम्प्रदायिक पूर्वग्रह है, जिसके कारण वे इस रचना में सीमा और साम्प्रदायिकता देखते हैं। व्यापक दृष्टि के अधीत, मर्म गामी, तन्मय पाठकों और समीक्षकों को तो ऐसी किसी चीज़ का ख्याल तक न आया। भगवान बुद्ध के जो एकाध उल्लेख पिछले खण्डों में हुए हैं, उनमें कुछ मित्रों को ऐसा लगा है कि मैंने महावीर की तुलना में बुद्ध को निचले स्तर पर दिखाया है। लेकिन यह एक पूवग्रहीत और सीमित पाठक का स्थूल और असावधान अर्थ-ग्रहण है। बौद्धागम, जैनागम और इतिहास में महावीर और बुद्ध के व्यक्तित्वों की जो अस्मिता और इयत्ता उपलब्ध होती है, और उनका जो तत्त्वदर्शन सम्मुख है, उसी की तरतमता में मैंने उनके व्यक्तित्वों को सन्दमित किया है। पूर्वग्रह और दृष्टि-सीमा के कारण ऐसे समीक्षकों ने सन्दर्भ से हटा कर कोरे तथ्य-ग्रहण के कारण ऐसा अनर्गल और निराधार आरोप लगाया है।
उपलब्ध जैन काव्य-भाषा में महावीर के विराट और अनन्त स्वरूप का जो आलेखन और गुणगान दिखायी पड़ता है, वह विश्व पुरूष का है, किसी जैन महावीर का नहीं । मैं यथा स्थान कृष्ण, बुद्ध या ईसा का भी ऐसा ही चित्रण, उनकी इयत्ता, परम्परा और परिवेश के अनुरूप भाषा में कर सकता हूँ। परम्परागत जैनागम में भक्तिभाव को लगभग स्थान है ही नहीं । प्रमुखता तो निश्चय ही नहीं है। लेकिन मेरी इस कृति में ज्ञान, भक्ति, शक्ति और कर्म का अनायास एक अदभुत् समरस समायोजन आपोआप हुआ है । मेरे मन ज्ञान और प्रेम, प्रज्ञा और सम्वेदन, शक्ति और भक्ति परस्पर पूरक और अनिवार्य चेतनास्थितियाँ हैं। महावीर कितने ही निर्मम वीतरागी क्यों न हों, यह अस्वाभाविक है, कि यथास्थान उनमें ज्ञान और प्रेम का समानान्तर उन्मेष न हो। जिसमें वैश्विक प्रेम की सम्वेदना न रही हो, वह सकल चराचर और प्राणि मात्र के
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