Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 386
________________ एक ही घर के सीमित अवकाश में, कुल तीन दिनों के भीतर, समग्र जीवन को एक अनाहत धारावत् चित्रित किया है। वे तीन दिन एकाग्र भूत-भविष्यवर्तमान काल हो रहते हैं। यह लीला काल में हो कर भी, काल की अवधिगत सीमा को सम्वेदन के स्तर पर विसर्जित कर देती है। काल मानो कि लुप्तप्राय है। उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता। आइंस्टीन ने तो काल को भी सापेक्ष कह कर, उसकी हस्ती को ही खत्म कर दिया है। अचानक 'योग वासिष्ठ' की याद आ जाती है। प्राक्तन भारतीय साहित्य-शास्त्र और अधुनातन पश्चिमी काव्य-शास्त्र में मी, एपिक अथवा महाकाव्य की काल-चेतना को लेकर बहुत गवेषणात्मक, विशद और सूक्ष्म विवेचन हुआ है। हमारे यहाँ अधुनातन साहित्य में, अभी वंसी व्यापक संचेतना और गंभीर अन्वेषणा लक्षित नहीं होती। 'अनुत्तरयोगी' के काल-बोध को ले कर इसी कारण कुछ ग़लतफ़हमी हुई है, और आगे अधिक होने की सम्भावना है। तो इस विषय में कुछ खुलासा ज़रूरी है। यहाँ यह उल्लेखनीय है, कि श्री अनन्तकुमार पाषाण ने 'अनुत्तर योगी' की काल-संकल्पना पर बड़ा वेधक प्रकाश डाला है। पाषाण पश्चिमी साहित्य के गहन अध्येता हैं, स्वयम् एक समर्थ रचनाकार हैं, और भारतीय दर्शन के परिप्रेक्ष्य से सम्बद्ध हैं, इसी से उन जैसी समीक्षा-दृष्टि आज कुछ गिनेचुने समीक्षकों को छोड़ कर अन्यत्र दुर्लभ है। __मैं यहाँ ‘अनुतर योगी' की काल-संकल्पना पर, सामान्यतः भारतीय और जैन दृष्टाओं की काल-संचेतना और अपने स्वानुभूत कालबोध के जरिये रोशनी डालूंगा। जिन दृष्टाओं ने चेतन, अचेतन, धर्म, अधर्म, आकाश और काल--इन छह दव्यों के समुच्चय को लोक या विश्व कहा है। इनमें चेतन और अचेतन द्रव्य अपनी स्वतंत्र सत्ता में ही स्वतः सक्रिय हैं। अचेतन अपनी क्रिया में चेतन की संचालना की अपेक्षा नहीं रखता। दोनों ही समान और स्वतंत्र रूप से अपने ही में परिणाम उत्पन्न कर रहे हैं। धर्म गति में सहायक है, अधर्म ठहराव में । ये चालक या नियंत्रक नहीं, निमित्त मात्र हैं--बहाव और ठहराव के । इसी प्रकार काल द्रव्य भी समस्त द्रव्यों के उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवत्व-स्वरूप परिणमन में सहकारी निमित्त मात्र है। वह भी चेतन-अचेतन आदि द्रव्यों का चालक या निर्णायक नहीं। काल का लक्षण है-वर्तना। वह स्वयम् परिवर्तन करते हुए अन्य द्रव्यों के परिवर्तन में सहकारी होता है। आकाश तमाम पदार्थों को रहने का अवकाश या स्थान देता है। वह लोका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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