Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 387
________________ २९ यतन है, जिसमें लोक अवस्थित है । लेकिन फिर भी हर द्रव्य अपने में स्वतंत्र है, और अपने अस्तित्व के लिये अन्य पर निर्भर नहीं । वे परिणमन में परस्पर को निमित्त और सहकारी मात्र हैं। उनकी क्रिया स्वतःस्फूर्त है, वह अन्य द्रव्यों से चालित नहीं । और फिर, आत्मानुभूति का एक ऐसा क्षण भी आता है, जब अन्य द्रव्यों का बोध ही शेष नहीं रह जाता, वे सब चैतन्य में अन्तर्भुक्त हो कर केवल स्वानुभव की आनन्दमय तरंगें भर हो रहते हैं । वेद और उपनिषद् में, देश-काल और सारे तत्त्व एकमेव परम सत्ता के प्रसार मात्र हैं । अनुभूति में अद्वैत और अभिव्यक्ति में द्वैत यथास्थान स्वीकृत हैं । उपनिषद् के मायावादी भाष्यकार शंकर ने द्वैत को समूचा ही नकार दिया, केवल 'एकोब्रह्म द्वितीयो नास्ति' पर ही वे समाप्त हो गये। लेकिन उत्तर काल के भागवत धर्मी वैष्णवों, शैवों, शावतों ने पुनः द्वैत और अद्वैत को सापेक्षतः स्वीकारा। नहीं तो जगत-लीला कैसे सम्भव हो ? और उसके आनन्द और सार्थकता का आधार क्या ? वैदिक, जैन या अन्य प्रमुख भारतीय दर्शन भी अन्ततः विश्व और काल की अनन्तता पर पहुँच कर ही समाधान पा सके हैं। सत्ता, चैतन्य और पदार्थ यदि अनन्त हैं, तो उनके संवहन का निमित्त काल भी अनन्त ही हो सकता है। जिन दृष्टाओं का स्पष्ट कथन है कि यह लोक अनादि और अनन्त है । और यह अनादि-अनन्त काल में सम्वाहित है । भूत, भविष्य, वर्तमान, सम्वत्सर, मास, दिवस, घड़ी-पल ये सब उसी एक अनाहत कालधारा की तरंगें या परिणमन मात्र हैं । किन्तु अपनी स्वायत्तता में वह काल अनन्त है । और यदि शुद्ध चैतन्य अनन्त है, पदार्थ-जगत अनन्त है, तो उनमें होने वाला विशुद्ध काल-बोध भी अनन्त ही हो सकता है। इसी कारण क्षण में मी सर्वकाल और शाश्वती ( इटर्निटी) को अनुभूति हो सकती है । और रसानन्द गहरा हो जाये, तो कई महीने और बरस भी पलक मारते में गुज़र सकते हैं। असली चीज़ है चैतन्य और चेतना, काल अंततः रह जाता है, मात्र उसकी तरंग। इसी अनुभव को जॉयस ने 'यूलीसिस' में मूर्त किया है। और 'योग वासिष्ठ' में इसी अनन्तकाल -वेतना के भीतर, अमुक कथा - पात्रों के कई fara और अनागत जीवनों को समाधिस्थ अवस्था में, कुछ ही पहरों के भीतर दिखा दिया गया है। यानी चेतना के स्तर पर कालबोध भी अन्तर्मुख और अन्तरवर्ती हो जाता है। इसी कारण तो अर्हत् सर्वज्ञ महावीर तीनों काल और तीनों लोकों को हस्तामलकवत् देखते हैं। यानी अनादि-अनन्त लोक और काल उनकी हथेली पर रक्खे आँवले में निरन्तर परिणमनशील हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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