Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 385
________________ प्रति इतना अनुकम्पाशील कैसे हो सकता था ? चन्दना, चलना, वैनतेयी, सुलसा, प्रियदर्शना आदि के चरित्रों में, अत्यन्त निजी सम्वेदना के स्तर पर ही महाभाव प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, प्रेमलक्षणा भक्ति का कथा गान हुआ है। और वह प्रेम स्वयम् भगवान में से प्रवाहित है, और वे परम वीतराग पुरुष भी उस प्रेम से सहज ही भावित हैं । अनायास उसके बन्दी हैं, और उसके प्रति समर्पित हैं। मेरी वर्षों व्यापी मातृ-साधना मी यथा प्रसंग इस कृति में प्रतिबिम्बित है। जहाँ भी नारी महावीर के निकट आयी है, वहाँ आद्या भगवती माँ का आविर्भाव स्वभावतः हुआ है। माँ मेरी समस्त कृति में अन्तर्व्याप्त है। शिव और शक्ति के भागवदीय मिथुन और मिथक को भी अनेक स्थलों पर स्पष्ट लक्षित पाया जा सकता है । महावीर मुझे बारम्बार अर्द्धनारीश्वर के रूप में दिखायी पड़ते हैं । ऐसी स्थिति में इस कृति में साम्प्रदायिकता सूंघना, भावक की अपनी ही स्थूल दृष्टि और चेतना की सीमा कही जा सकती है। दिक्कत यह हो गयी है, कि मेरी चेतना कुछ इस कदर सर्वतोमुखी और नाना-आयामी है, कि मेरे सृजन में किसी को अर्हत् दीखता है, किसी को ब्रह्म, किसी को वेदविद्या का कवि, कोई मुझे तांत्रिक कहता है, कोई मुझ में वैष्णव, शाक्त या शव देखता और पढ़ता है। और यदि एक साथ ये सारी स्फुरणाएँ और सम्वेदनाएँ मुझ में सक्रिय हैं, तो यह मेरी अन्तिम विवशता है। इसका उपाय ही क्या है ? जो मुझे इक तरफा (यूनीलेटरल) देखेगा, वह मुझे ग़लत समझेगा, जो मुझे चौतरफा (इन्टीग्रल) देखेगा, वही मुझे सही समझ सकेगा। इस कृति के कालबोध को ले कर काफी गलतफ़हमी देखी जाती है। भारतीय दृष्टाओं की काल-संकल्पना से अब हम परिचित नहीं रहे। लेकिन सतत प्रगति-धर्मी पश्चिम के दार्शनिक ही नहीं, कलाकार मी आदिकालीन यहूदी और ग्रीक प्रज्ञा से जुड़े रह कर, आज भी अपनी रचनाओं में कालचेतना का नित नये सिरे से अन्वेषण और सृजन कर रहे हैं। उनकी संचेतना वैश्विक है, मात्र सपाट ऐतिहासिक नहीं। भारत में खास कर आज का साहित्य, सपाट ऐतिहासिक काल से आगे नहीं जा पा रहा । अस्तित्व का संघर्ष ही जब सर्वस्वहारी हो, तो तत्त्व तक जाने का अवकाश ही कहाँ है चेतना में। लेकिन पश्चिमी सृजन की काल-संचेतना मौलिक, तात्विक, गहन और सर्वतोमुखी है। जेम्स जॉयस ने अपने उपन्यास 'यलोसिस' में. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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