________________
१६४
श्री भगवान विपुलाचल से उतर आए हैं । राजगृही के गुणशील उद्यान में वे समवसरित हैं। प्रातःकाल की धर्मसभा में गहन - गंभीर ओंकार ध्वनि मँडला रही है । वह धीरे-धीरे ऊपर उठती हुई असीम में विस्तारित हो रही है ।
सहसा ही उसमें से श्री भगवान की वाणी सुनाई पड़ी :
' आ गये मेघकुमार ? तुम प्रत्याशित थे ! '
'देवार्य का अनुगृह प्राप्त हुआ। मैं धन्य हुआ ।'
'हूँ' कह कर भगवान चुप रह गये । मेघकुमार आभा से वलयित उस सर्वस्वहारी सौन्दर्य में खोया सा रह गया ।
'अपने मनचीते पूर्णत्व को देह में साकार देख रहा हूँ, भगवन् ! इसी की खोज में तो बचपन से ही सदा व्यथित रहा हूँ । क्या अर्हतु का यह सौन्दर्य सदा अजर-अमर रहेगा ? '
प्रभु के
'जिस पदार्थ से यह बना है, उस द्रव्य का तो त्रिकाल विनाश नहीं । उसी में नये-नये रूप - पर्याय प्रकट और विलय होते रहते हैं । क्या तू चाहेगा कि एक ही रूप सदा बना रहे ? क्या नित नव्यता के बिना सौन्दर्य सम्भव है ? जो अनुक्षण नवीन न हो, वह सौन्दर्य अमर और अनन्त कैसे हो सकता है !'
'तो प्रभु का यह पूर्ण सौन्दर्य भी एक दिन लुप्त हो जायेगा ? यह दिव्य चरम शरीर भी क्षय हो जायेगा ? फिर वही शून्य । रूपाकार के बिना पूर्णत्व का प्रमाण कैसे मिले ? '
पर्याय का परिवर्तन भले ही हो, रूप भी यहाँ उतना ही सतत है, जितना कि अरूप निरंजन आत्मा ।'
'तो शरीर में कोई नित्य पूर्णत्व सम्भव नहीं, स्वामिन् ? '
'शरीर के भीतर शरीर है, उस के भीतर एक और भी शरीर है। एक और शरीर, एक और शरीर । जितने रक्तकोश, उतने शरीर । हर शरीर में अपार रहस्यों और शक्तियों के स्रोत हैं । शक्तियों, नानारंगी ज्योतियों, अनेक भावों और रसों के शरीर हैं । मर्त्य और विनाशी लगने वाला यह शरीर अगम निगम के अनन्त रहस्यों का आगार है । सारे शरीर पार होने पर जो देहातीत सिद्ध है, वह भी अपने अन्तिम शरीर के परिमाण में ही नित्य विद्यमान है । शरीर का सम्पूर्ण विनाश सम्भव होता, तो मुक्तात्मा में विगत देह का परिमाण. क्यों ?'
Jain Educationa International
'तो अन्ततः कहीं शरीर भी अमर है, नाथ ? कहीं मैं सदेह पूर्ण और अखण्ड हूँ ही ।'
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org