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चाहते हो? क्या वे तुम्हारी क्रीड़ा-पुत्तलियाँ हैं, कि जब चाहो भोगो, जब चाहो त्याग दो ?'
प्रभु फिर विरम गये। उस नीरवता में प्रश्न तीव्र से तीव्रतर होता गया । आनन्द काठमारा सा चुप हो रहा । फिर अनहद नाद शब्दायमान हुआ : ___ 'यहाँ कौन किसी को भोग सकता है ? हर व्यक्ति स्वयं अपने को भोगता हैं । हर वस्तु स्वयं अपने को भोगती है । पर द्वारा, पर का भोग स्वभाव नहीं, सद्भत नहीं । निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों के कारण परस्पर को भोगने को भ्रान्ति होती है । हम अन्य को जब भोगते हैं, तो उसे नहीं भोगते, उसके व्याज से अपने ही को भोगते हैं । तुम अपनी ही आत्मा सी अभिन्न लगती शिवानन्दा को भी भोग नहीं सकते । तो किसे भोगते हो, किसे त्यागते हो ? बहते पवन और बहते पानी को भोगने और त्यागने की छलना में पड़े हो, गृहपति आनन्द ? स्वकीया शिवानन्दा हो कि परकीया अन्य नारी हो, जो स्वयं ही अपने तन-मन की स्वामिनी नहीं, उसे भोगने या त्यागने वाले तुम कौन होते हो?' - प्रभु की इस देशना में वस्तु-स्वभाव का कोई अपूर्व ही आयाम प्रकट हो रहा था। जो परम्परागत जिनवाणी में कहीं पढ़ने-सुनने में न आया था । देव-गुरु वृहस्पति से लगा कर सारे पाश्र्वानुसारी यति, आचार्य और वेदांत वारिधी गौतम तक यह अश्रुतपूर्व वाणी सुन कर चकित थे । बौखला गये थे । तब बेचारे आनन्द गृहपति की क्या बिसात ?
उस अबूझ निस्तब्धता को तोड़ते हुए आर्य गौतम ने सब के हृदयों में उठ रहे तीव्र प्रश्न को उच्चरित किया :
'पूछता हूँ, हे सर्वदर्शी, सर्वज्ञानी प्रभु । जिनेश्वरी परम्परा में जो श्रावकों के बारह व्रत, तथा श्रमणों के महाव्रतों का विधान है, वह क्या हेय है भगवन् ?'
'परम्परा केवल प्रज्ञा को होतो है, विधि-विधान की नहीं होती, गौतम । नीति-नियम, आचार-विचार, विधि-विधान युगानुरूप बदलते रहते हैं । आज का तीर्थंकर, विगत कल के तीर्थकर को दुहरा नहीं सकता। वह अनन्त सत्तापुरूष का स्वभाव नहीं । वे त्रिकाली ध्रव अर्हत, वस्तु स्वभाव से चारित्र्य का निर्णय करते हैं, विधि-विधान और विधि-निषेध से नहीं ।'
'लेकिन, भन्ते स्वामिन्, शास्त्रों में तो निर्धारित आचार-मार्ग है ही। व्रतनियम का विधि-विधान है ही। क्या वह ग़लत है, और उसकी अवगणना की जा सकती है ?'
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