________________
३२९
जियेगा, वह सहज ही इन धर्मों में व्यक्त होगा । स्वभाव से ही ये आचार प्रकट होते हैं । इन आचारों का पालन कर के स्वभाव तक नहीं पहुंचा जा सकता। आचार से आत्मा नहीं मिलता, आत्मा से आचार प्रवाहित होता है ।'
आनन्द गृहपति ने और भी स्पष्टीकरण चाहते हुए पूछा : 'तो श्रावकों के इन पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों का क्या आशय है, भगवन् ? तीर्थंकर पार्श्वनाथ के श्रमण चिरकाल से इनका प्रवचन कर रहे हैं, क्या वह मिथ्या है ?'
'पार्श्व ने आचारों का वर्गीकरण और संख्या निर्धारण न किया । अभेद ज्ञानी भेदभाव से ऊपर होता है । पदार्थ, आत्मा और सत्ता, भेद और वर्गीकरण से परे है । वर्गीकरण करके हम वस्तु-सत्ता को सीमित कर देते हैं। उसे उसके स्वभावगत अनन्त से स्खलित कर देते हैं।'
पूछा गौतम ने :
'तो फिर शास्त्रों में यह वर्गीकरण और संख्या-निर्धारण कहाँ से आया, भन्ते क्षमा-श्रमण ?' ___'पदार्थों, विचारों, भावों, गुणों, कर्मों का भेदीकरण और वर्गीकरण पीछे से अनुयायी श्रमणों ने सुविधा के लिये किया। तत्त्व को दर्शन और प्रणाली में बॉधा, लीक बनानी चाही कि पन्थ चले, अनुयायी बढ़े। धर्म सुविधापूर्वक पालन की वस्तु हो जाये। यह सारा बुद्धि और तर्क का स्वार्थ-न्यस्त खिलवाड़ है। देव, शास्त्र, गुरु की गद्दियाँ बिछा कर, धर्म की गद्दी चलाने का उपक्रम है । वणिक प्रभुता के युग में इस प्रकार धर्म भी व्यापार-व्यवसाय हो कर रह गया
___आनन्द गृहपति को अपने अस्तित्व का आधार ध्वस्त होता अनुभव हुआ। उसने कम्पित स्वर में अनुनय की :
'कोई स्पष्ट और विधायक मार्ग-रेखा सुझायें, प्रभु । अर्हत् पार्श्व भी हाथ से निकल रहे हैं, भगवन् । और महावीर तक पहुँच नहीं ! . . . '
'पार्श्व की सम्यक् पहचान पाना होगा, आनन्द । पार्श्व ने आत्म-धर्म कहा, वस्तु-स्वभाव कहा, सत्ता-स्वरूप कहा, द्रव्य और उनके अनन्त गुण तथा पर्याय कहे । अनुयायी श्रमणों और शास्त्रियों ने उन्हें सीमा, वर्ग, परिभाषा में बाँध कर सम्प्रदाय चलाया । पंथ चलाये । भेदाभेद का जंगल उगा दिया । उसमें आत्मा कहाँ है ? वह तो अहंकार और अनात्मा का संघर्ष-राज्य है । वह धर्म नहीं, अधर्म और अधोगति का रास्ता है।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org