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शास्त्र तात्कालिक होता है, वह त्रिकालिक नहीं होता, गौतम । त्रिकालिक आत्म-वस्तु का अन्तिम निर्णय, तात्कालिक शास्त्र कैसे कर सकता है ? शास्त्र शाश्वत नहीं, सामयिक है । और जानो गौतम, शास्त्र की शब्द - सीमा में, अनन्त पदार्थ, उनके गुण- पर्याय, उनके अनन्त परिणमन कैसे बँध सकते हैं ? आज और यहाँ जो नैतिक और वैध है, वह कल या और कहीं अनैतिक और अवैध भी हो सकता है । आज जो त्याज्य दिखता है, वह कल ग्राह्य भी हो सकता है।'
गृहपति आनन्द उत्तरोत्तर उद्बुद्ध होने लगा । उसने हर्षित हो कर अपनी शंकाओं का निवारण चाहा । उसने निवेदन किया :
'भन्ते त्रिलोकीनाथ, अद्भुत मूक्तिदायक है यह जिन-वाणी । लेकिन मैं तो प्रभु का उपासक श्रावक होने आया हूँ । सो आगम में श्रावक के जो व्रत कहे हैं, उन्हीं को मैंने अंगीकार किया, भगवन् ।'
'शास्त्र और आगम पढ़ कर मेरे पास प्रतिबोध पाने आये हो, आनन्द ? उन्हीं के अनुसार चारित्र्य ग्रहण करने आये हो ? शास्त्र में लिखित प्रतिज्ञाएँ दुहरा कर मुझ से उनका समर्थन पाना चाहते हो ? उन पर तुम महावीर की मुहर चाहते हो ? लेकिन महावीर को पूर्व कथित या पूर्व ग्रथित प्रमाण नहीं । महावीर को कोई शास्त्र प्रमाण नहीं । शास्त्र ही अलम् है, तो उसी से प्रतिज्ञा ले लो, मेरे पास क्यों आये ?'
'भगवन्, मुझ अज्ञानी को क्षमा करें। मैं तो एक अज्ञ वणिक व्यापारी हूँ । मुझे अपने वाणिज्य से दम मारने की फुर्सत नहीं । पर अब अपने धन और भोग से ऊब गया हूँ । अब तक धर्म को श्रमणों और शास्त्रों से ही सुना था । उसी विधान की राह प्रभु का श्रावक होने आया हूँ ।'
'जानता हूँ, आनन्द, वाणिज्य ही वणिक की आत्मा हो रहता है। वही उसका जीवन-प्राण होता है । उसी में वह इतना खोया रहता है, कि जिन सुख -भोगों के लिये वह धन कमाता है, उनको पा कर भी, उन्हें भोगने का अवकाश उसे नहीं । लोभ, लोभ, गृद्ध-लोभ, सर्वभक्षी लोभ । मूर्तिमान शोषण, भक्षण. सत्ता मात्र के अपहरण और आहरण की सर्वग्रासी वासना । यही वणिक की परिभाषा है। अपनी श्रेष्ठ सुन्दरी भार्या को भी भोगने का अवकाश वणिक को नहीं । अन्घड़ में बहता उसका प्रेत ही उसे भोग पाता है । 'ठीक ही तो है आनन्द, वणिक धर्मकर्म, पूजा-उपासना, दया दान, व्रत आचार भी हिसाब-किताब से ही करता है । वणिक अपने भोग तक में हिसाबी - किताबी है। विवाह जैसे पवित्र संस्कार में भी वह वर-कन्या का सौदा करता है । प्रेम प्रणय में भी वह लेन-देन की चौकसी
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