Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 372
________________ १४ वे समर्पित हो कर प्रभु के पट्ट- गणधर के आसन पर बिराजमान हो गये । उसके बाद क्रमशः दोनों अनुज गौतम, अन्य आठ ब्राह्मण श्रेष्ठ और पावा के यज्ञ का समस्त ब्राह्मण-मण्डल विपुलाचल पर आता है । वे सब प्रभु के शरणागत हो जाते हैं। उन्हें स्पष्ट साक्षात्कार होता है, कि स्वयम् महावीर ही उस काल, उस मुहूर्त में साक्षात् वेद भगवान के रूप में अवतरित हुए हैं । पावा का पुनर्नवा सोमयाग वहीं अपनी पूर्णाहुति पर पहुँच रहा है । वहीं से वैदिक धर्म की नूतन गायत्री उच्चरित हो रही है । समन्वय का एक मौलिक, स्वाभाविक और अद्भुत दृश्य उपस्थित होता है । इस प्रकरण को यहाँ दुहराने का एक विशिष्ट प्रयोजन है । भारत के पश्चिमी इतिहासकार, और उन्हीं को प्राकारन्तर से दुहराने वाले भारतीय इतिहासकार भी इस मुद्दे पर लगभग एकमत हैं, कि बुद्ध और महावीर वैदिक धर्म के विरोधी और उच्छेदक थे । जहाँ तक बुद्ध की बात है, बौद्ध वाङ्गमय में ऐसी उक्तियाँ और प्रसंग मोजूद हैं, जहाँ स्वयम् भगवान बुद्ध ब्राह्मण और ब्राह्मण धर्म की तीखी आलोचना करते सुनाई पड़ते हैं । और वह अप्रासंगिक भी नहीं था, बल्कि स्वाभाविक था । क्यों कि ब्राह्मण धर्म का उस काल जैसा पतन हुआ था, और सारे लोक पर उसका जो दुष्प्रभाव पड़ रहा था, उसके विरुद्ध बुद्ध जैसा सत्य - साक्षात्कारी योगीश्वर विद्रोह और मंजन की वाणी उच्चरित कर ही सकता था । और मेरे मन वह सर्वथा वन्दनीय है । लेकिन आपको आश्चर्य होगा जान कर, कि समूचे आगम-वाङ्गमय में महावीर कहीं भी वेद और ब्राह्मण के विरुद्ध बोलते नहीं सुनाई पड़ते । वे विरोध की वाणी बोले ही नहीं, उन्होंने किसी मी तत्कालीन मत-सम्प्रदाय का विरोध नहीं किया । वे केवल अपने साक्षात्कृत सत्य की विधायक वाणी बोलते रहे । इतना ही नहीं, जब तीनों गौतम-पुत्र और आठ अन्य ब्राह्मण श्रेष्ठ तथा सारा प्रतिनिधि ब्राह्मण मण्डल उनका शरणागत हो गया, और जब प्रथम ग्यारह ब्राह्मण श्रेष्ठों ने स्वयम् वेद और उपनिषद् के कथनों में विरोध देखा और प्रभु के सामने शंका प्रकट की कि जिस श्रुति में पूर्वापर विरोध पाया जाता हो, वह श्रुति सत्य कैसे हो सकती है ? तब भगवान ने स्पष्ट कहा कि'विरोध श्रुति में नहीं, तुम्हारी मति में है, ब्राह्मणो ! और अनन्तर समझाया कि- 'वेद ऋचा यथा-स्थान सत्य है, उपनिषद् यथा सन्दर्भ सत्य है । सत्ता अनैकान्तिक है, सो कथन और ग्रहण दोनों सापेक्ष ही हो सकता है ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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