Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ १९ दार्शनिक और चेतनात्मक अन्वेषण करते हैं । वे पूरे इतिहास की अन्तर्गामी चेतना-धाराओं का अतलगामी पर्यवेक्षण करते हैं, और इतिहास के युगों, पात्रों, व्यक्तित्वों, कला-सृजनों, धर्मों, योगियों, दार्शनिकों, कलाकारों का चेतनात्मक अध्ययन करके, एक सर्वथा नया, सृजनात्मक, अनुभूति-चिन्तनात्मक प्रति-इतिहास लिखते हैं । हीगल, टोयनबी, स्पेंगलर, श्रीअरविन्द, हेनरिख झीमर और कुमारस्वामी इसी किस्म के इतिहासकार हैं । उन्होंने युगों, व्यविततत्वों, जातियों की धारावाहिक रूप से विकासमान चेतना में अवगाहन करके, उसे नये सिरे से उद्भावित किया है । एक प्रकार से 'अनुत्तर योगी' मी ठीक उसी तरह, सृजन के क्षेत्र में एक इतिहास-दार्शनिक रचना करने का जोखिम भरा प्रयोग है । ऐसी स्थिति में तथ्यों, नामों, कथानकों में यदि ऐच्छिक परिवर्तन करने की छूट ली गयी है, तो शायद वह अवैध और आपत्तिजनक नहीं कही जा सकती । और फिर पुराकथा ज़रूरी तौर पर इतिहास है भी नहीं, कि तथ्यों को तोड़नेमरोड़ने का आरोप आ सके । ___ इतिहास को चेतनात्मक जरूरत में से रूपान्तरित करने की छु ट मैंने पिछले दो खण्डों में भी ली है । कुछ समीक्षाकार मित्रों ने प्रश्न उठा कर छोड़ दिया है, कि उस तरह की छूट लेने में कहाँ तक औचित्य है ? यह आपत्ति ऐसे ही लोगों के मन में उठती है, जिन पर तथ्यात्मकता और वास्तववादिता हावी होती है, और जो रचना का किंचित् मर्म समझ कर मी, उसके साथ समग्रतः तन्मय नहीं हो पाते हैं । वैसी तन्मयता हो सके, तो समीक्षक प्रत्यक्ष का ईक्षक हो जाये, और वह इतिहास की आन्तरिक अन्विति और धारावाहिकता के साथ जुड़ जाये । वह इतनी आधारिक और प्रत्ययकारी होती है, कि तथ्य उसमें जीवन्त होकर, अपने सही परिप्रेक्ष्य में मास्वर हो उठता है। ऐसे पारदर्शी अवबोधन और सम्वेदन के अभाव में ही, समीक्षक ऐतिहासिक अनौचित्य का प्रश्न उठाते हैं । हिन्दी में अभी ऐसे अन्तर्दर्शी समीक्षक गिने-चुने ही हैं, जो इतिहास की इस आन्तरिक अन्विति और चेतनागत लय का सूक्ष्म अन्वेषण कर सकें। यह काम कोई विरल सृजनधर्मो समीक्षक ही कर पाते हैं, जिनके नाम गिनाना भी आज मुहाल है । क्यों कि लोग चौकेंगे, और गलत समझेंगे । हिन्दी की अद्यतन समीक्षा इतनी रूढ़ और महदूद हो गई है, कि उसमें भयंकर पुनरावृत्ति और मॉनोटॅनी का बोध होता है। कोई ताजगी नहीं, अन्वेषण का कोई नया उन्मेष नहीं । नई चेतना और मूल्य-मान के नये आधार खोजने का कोई अतिक्रमणकारी प्रस्थान नहीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410