Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 365
________________ महावीर का जुड़ाव अनायास आज के श्री अरविन्द से सीधा हो जाता है। यह भी कम दिलचस्प नहीं, कि श्री अरविन्द ने मानव-देह में ही जिस अक्षय्य और अपात्य पूर्णपुरुष अति-मानव का साक्षात्कार किया है, उसका एक मुकम्मिल और समीचीन मूर्तन हमें अर्हत् महावीर में मिल सकता है। इसी से अखण्ड या धारावाही देश-काल के इस विराट् पट पर, जब कहीं कोई भी घटना होती है, तो समग्र सत्ता में उसके प्रकम्पन प्रवाहित होते हैं। · · 'जब मरत-खण्ड के मगध देश में एक दिन अचानक महावीर को केवलज्ञान हो गया, तो वे तीनों लोक और तीनों काल को हथेली पर रक्खे आँवले की तरह देखने लगे। इससे बड़ी घटना लोक में और क्या हो सकती है। अनादि-अनन्त देश-काल में इस महाघटना के प्रकम्पन व्याप गये। तो स्वर्गों में भी हलचल मच गई। ऐसा विस्फोटक प्रकाश त्रिलोक में व्याप्त हुआ, कि उसके समक्ष स्वर्गों की सारी प्रभाएँ मन्द पड़ गई। वहाँ के अमर कहे जाते ऐश्वर्य-मोग क्षय और मृत्यु के ग्रास होते दिखाई पड़े। देव-देवेन्द्रों का अपनी तथाकथित अमरता का गुमान समाप्त हो गया । पृथ्वी के एक मर्त्य मनुष्य ने अपने अनाहत पराक्रम और कैवल्य के प्रकाश से मृत्यु को जय कर लिया था। उस ज्योतिस्फोट से स्वर्गों में प्रलय आ गया, देवेन्द्रों की सत्ता समाप्त हो गई। स्वर्ग भरभरा कर टूटते, बिखरते, लुढ़कते, ध्वस्त होते दिखाई पड़े। एक सार्वलौकि (कॉस्मिक) अतिक्रान्ति हुई। स्वर्गों का अभिमान चूर-चूर हो गया। - ‘उन्हें अपने अवधिज्ञान से महावीर के कंवल्यलाम का पता चला। वे नम्रीमूत हो कर समर्पित हो गये, और स्वर्गों में फिर से नई रचना प्रकट हो आई। इस वैश्विक अतिभौतिकी (फिनॉमेनन) को उपन्यास में मूर्त करने का एक अनोखा कलात्मक आकर्षण मैं रोक न सका । इसमें देश-काल के अखण्ड और खण्ड दोनों रूपों का एकाग्र चित्रण कर के, मृत्युबोध को ठीक सम्वेदन के स्तर पर समाप्त करने का यह सृजनात्मक सुयोग मुझे अपूर्व लगा। इसी से प्रस्तुत तृतीय खण्ड के प्रथम अध्याय 'श्रोता की खोज में' को मैंने उक्त कथानक के पट पर, एक उपोद्घात के रूप में रचा। स्वर्ग में शची और शक्रेन्द्र का अटूट आलिंगन टूट गया। वे छिटक कर आमने-सामने खड़े हो गये। उनके बीच विह्वल सम्वाद चल रहा है, और वे एक ही समय में समस्त स्वर्गों के प्रलय और नव्योदय के साक्षी होते हैं। यह घटना धारावाहिक देश-काल में होती है, फिर भी खण्ड व्यक्ति, देश, काल, भाव के माध्यम से व्यक्त हो कर, अखण्ड महादेश-महाकाल से समन्वित हो जाती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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