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और धर्मराज्य की संस्थापना के लिये महाभारत के खखार युद्ध का सारथ्य किया। परिणाम क्या हुआ, महाराज? वेदव्यास साक्षी हैं, युद्ध के बाद द्वारिका लौट कर स्वयं भगवान कृष्ण, अपनी स्वप्न-नगरी को आत्मनाश की लपटों से न बचा सके। निदान खुद ही, इस कामराज्य से निर्वासन ले कर, गुंजान बीहड़ों में निकल पड़े। एक अज्ञानी व्याध के तीर से जंगल में एकाकी मर जाना पसन्द किया !' __तो क्या कृष्ण हार गये, धर्म हार गया, मेघ?'
'वासुदेव कृष्ण हार-जीत से ऊपर ही जन्मा था। पर मर्त्य मानव की हार-जीत की लीला में अपना खेल वह ठीक मनुष्य हो कर खेला। और आखिर 'अनित्यम् असुखम्' कह कर इस संसार का उपसंहार कर गया। अस्तित्व की त्रासदी को उसने मनुष्य की तरह झेला, खेना, स्वीकारा, और एक ही छलाँग में फिर उसे लाँघ गया। दिखा गया, कि यह संसार इससे आगे नहीं जा पा रहा।
और भी उत्तेजित हो कर बोलता ही चला गया मेघकुमार : 'तो पूछता हूँ कृष्ण से, इतना बड़ा महाभारत किस लिये ? ऐसा निर्घण रक्तपात, ऐसी अमानुषी स्मशान-लोला किस लिये? इसीलिये कि अपनो विजय में भी धर्मराज युधिष्ठिर को आखिर हार की ग्लानि अनुभव हुई ! लाखों के रक्त से नहाये सिंहासन पर धर्मराज को कभी चैन न आया। धर्मराज्य केवल एक स्वप्न हो कर रह गया, महाराज!
'और जानें महाराज, इस धरती का और कुछ भी युधिष्ठिर के साथ न गया। साथ गया एक अज्ञात कुत्ता. जिसे छोड़ कर उन्होंने स्वर्ग में प्रवेश करने से भी इनकार कर दिया। वह कुत्ता ही उनका धर्म था। वही उनकी अस्मिता थी। पर राज्य ? उसमें तो जन्मेजय के नागयज्ञों की परम्परा अटूट रही। उस पृथ्वी पर मुझे राज्य करने को कहते हैं, बापू ?'
श्रेणिक की आँखें खुल गई। धारिणी देवी उमड़ती आंखों पहचानती रह गई । क्या यह उन्हीं की कोख बोल रही है ? एक अटूट चुप्पो व्याप रही।
आह दबा कर, सम्राट ने कातर स्वर में कहा : 'अन्तिम अनुरोध करता हूँ। एक दिन के लिये मगध के सिंहासन पर राज्य कर जाओ, ताकि धर्म-साम्राज्य की परम्परा अटूट रह सके।'
'वैसी कोई परम्परा यहाँ नहीं, बापू । होती तो मैं क्यों जाता यहाँ से ?' 'तो कहीं और है वह सम्भावना ?'
'अन्तिम और असम्भव में मेरा विश्वास नहीं, भन्ते तात । महावीर में सब सम्भव है, यह प्रत्यक्ष देख-सुन आया हूँ । मैं उस सम्वादी सत्ता की खोज
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