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'इन्द्रा, दसवीं आत्मा आज प्रतिबोध पाने नहीं आई। उसके आये बिना ही मैं अन्न-जल ग्रहण कैसे कर सकता हूँ। मैं प्रतिबद्ध हूँ।'
'किसके प्रति ? मेरे प्रति कि महावीर के प्रति ?' 'अपने प्रति !'
इन्द्रा सुन कर सन्न रह गयी। वह दारुण ईर्ष्या से जल उठी। उसने तीखी आवाज़ में पूछा :
'और वह दसवीं आत्मा आये ही नहीं तो?' 'तो' . 'तो' • 'मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकता !' 'कब तक?' 'जब तक वह आ न जाये !' 'कभी न आये तो?' .. • कभी नहीं !' इन्द्रनीला का धैर्य टूट गया। वह चीख उठी : 'तो तुम्हीं वह दसवीं आत्मा हो जाओ। और मेरा पिण्ड छोड़ो!'.
नन्दिषेण क्षण भर स्तब्ध रह कर, उस इन्द्रनीला को ताकता रह गया। फिर मानो किसी अपूर्व प्रकाश में जाग कर बोला :
'ओह, मेरी सती रानी, तुमने मेरा तृतीय नेत्र खोल दिया ! मेरी अवरुद्ध राह को मुक्त कर दिया। तुम गणिका नहीं, सच ही मेरी गायत्री हो। मैं चला, देवी।'
और तत्काल उठ कर नन्दिषेण ने इन्द्रनीला के चरण छू लिये, और वह गरुड़ पक्षी की तरह उसके हाथ से उड़ निकला। इन्द्रा निरुपाय, हतचेत ताकती रह गयी। और नन्दिषेण जैसे आकाश-पथ पर कहीं विलीन हो गया। इन्द्रनीला धड़ाम से मूर्छित हो कर गिर पड़ी।
और नन्दिषेण को पंख लग गये थे। वह पवन के वेग से प्रभु के समवसरण की ओर धावमान था।
श्री भगवान फिर मगध में विहार कर रहे हैं। नालन्द के उपान्तवर्ती श्रीपद्म उद्यान में वे समवसरित हैं।
मण्डलाकार ओंकार ध्वनि अचानक रुक गयी। नन्दिषण श्रीपाद में उपस्थित है।
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