________________
३२०
उनके दर्शन-श्रवण को तरस रहा था। पर मुहूर्त नहीं आया था, और वह उन तक जा न सका था। हाल ही में अचानक वाणिज्य-ग्राम में सम्वाद पहुंचा था, कि महावीर कौशाम्बी और काशी के जनपदों में विहार कर रहे हैं। आश्चर्य नहीं, कि कभी भी वे वाणिज्य-ग्राम में भी विहार करें। . . .
आनन्द का हृदय इस सम्वाद से कुछ आश्वस्त हुआ। वह व्याकुलता से प्रभु के पधारने की प्रतीक्षा करने लगा। एकाग्र चित्त से वह हर समय उन्हें मन ही मन पुकारने लगा। • • • मेरे एक मात्र वाण, मुझे इस जीते जी की मृत्यु से उबारो। हर साँस में फाँसी लग रही है । · · · मेरे नगर-प्रांगण में पधारो । मुझे शरण दो । मुझे धर्म-कथा सुनाओ । और अपने बारह व्रतों में दीक्षित कर, मुझे अपना श्रावक बना लो। . . .
उस दिन प्रातःकाल वाणिज्य ग्राम में एकाएक आघोषणा हुई, कि चरम तीर्थंकर महावीर प्रभु हमारे नगर के प्रांगण में पधारे हैं । वे नीलमणि उद्यान में समवसरित हैं । सारा परिवेश उनकी कैवल्य-प्रभा से जगमगा उठा है। त्रिलोकी नाथ महावीर जयवन्त हों।
और बात की बात में वाणिज्य ग्राम उत्सव की सज्जा और मंगल वाजित्रों की ध्वनियों से उल्लसित हो उठा । हजारों नर-नारी नव-नवीन वस्त्रों में सज कर प्रभु के वन्दन को चल पड़े। सारे सन्निवेश को ऐसा अनुभव हुआ, कि उनके इस श्री-सम्पन्न नगर का कोई अलौकिक नवजन्म हो गया है ।
आनन्द गृहपति को स्पष्ट प्रतीति हुई, कि उसी की पुकार पर त्रिलोकी के तारनहार प्रभु उसके आँगन में स्वयं ही पधारे हैं । उसने चीन देश के महामूल्य रेशमी वस्त्र और महद्धिक रत्नाभरण धारण किये । सुदूर द्वीपों के दुर्लभ फुलैलों को अंगों में बसा लिया। चन्दन-केशर का तिलक ललाट पर लगाया। और अपने समस्त वैभव परिकर के साथ श्री भगवान के वन्दन को गया ।
प्रभु के श्रीमुख का दर्शन करते ही, जैसे उसके मन के सारे परिताप और प्रश्न अनायास शान्त हो गये । गन्धकुटी की तीन प्रदक्षिणा कर, साष्टांग प्रणिपात के उपरान्त वह श्रीभगवान के समक्ष नम्रीभूत खड़ा हो गया।
भावाकुलता के कारण उसका बोल फूट नहीं पा रहा था। प्रभु की धर्म-देशना उस क्षण थम गयी थी । उस गहरी नीरवता में कुछ उद्बुद्ध होते हुए आनन्द गृहपति ने निवेदन किया :
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org