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की लकड़ी की तरह जला देती है । अपने समय के अवतारी को पहचानना सहज नहीं, देवी । स्वयं उसी के अनुग्रह से वह संभव हो पाता है।'
_ 'सच कह रहे हो, देवानुप्रिय। तुम्हारी क्रिया और तुम्हारा वचन, उन प्रभु का ही तो था। उनका अनुग्रह मुझ हतभागिनी को भी प्राप्त हो गया । · · · मैंने अपने परमेश्वर पिता को पहचान लिया !'
देवी अनवद्या हठात् खड़ी हो गईं । मन-ही-मन प्रतिज्ञा की : 'अब अपने स्वामी के श्री चरणों में पहुँच कर ही, अन्न-जल ग्रहण करूँगी।' और तत्काल वे उस दिशा में विहार कर गयीं, जिधर श्री भगवन्त पाँच योजन पर समवसरित थे। उनकी श्रमणियाँ भी अविकल्प उनका अनुगमन कर गयीं ।
'आओ अनवद्या । तुम्हें आना ही था। सुबह का भटका साँझ को घर लौटता ही है। सब यथा समय, यथा स्वभाव होता है।'
अनवद्या की आँखों से धारासार आँसू बह रहे थे । निगड़ित कण्ठ से वे बोली :
'मैं अपने विश्वम्भर पिता को न पहचान सकी। धिक्कार है मुझ कृत्या को !'
'तुम्हें आदिकाल से जानता हूँ, अनवद्या। और तुम भी आदिकाल से मुझे पहचानती हो । प्राणि मात्र के बीच मोहान्धकार की असंख्य रात्रियाँ पड़ी हैं । शुद्ध परिणमन का मुहुर्त आने पर ही परम मिलन अनायास होता है। कभी तुम्हें अनवद्या कहा था, प्रियदर्शना। तुम्हें कलंक लग ही नहीं सकता ! फिर ग्लानि क्यों? तुम कृतार्थ हुईं, अनवद्या, तुम परिपूर्त हुई ।'
किंतु अनवद्या के भीतर से उमड़ती रुलाई रुक ही नहीं पा रही थी । श्री भगवान बोले :
'तुम्हारी समवेदना को बझ रहा हूँ, देवानुप्रिये । यही महावीर की दुहिता के योग्य है। · · · निश्चिन्त हो जाओ। आर्य जमालि दिवंगत हो गये । वे लान्तक देवलोक में किल्विष देव हो कर इस समय कुसुम-शैया में सुख से सोये हैं । अब उन्हें तुम्हारे सहारे की ज़रूरत नहीं।'
'उनका भवितव्य प्रभ ?'
'आसन्न भव्य हैं, आर्य जमालि । कुछ जन्मान्तरों के बाद निकट भविष्य में ही मोक्ष लाभ करेंगे । महावीर के द्रोही की मुक्ति अवश्यम्भावी है । जिसने मुझे हर साँस में याद किया, उसे तो मुक्त होना ही है !'
प्रियदर्शना की भवरात्रि समाप्त हो गयी। क्षण मात्र में उसके जनम-जनम के मोहान्धकार कट गये । उसके भ्रूमध्य में जैसे कोई अपूर्व सूर्योदय हो गया।
वह साष्टांग प्रणिपात में प्रभु के समक्ष निवेदित हो गयी।
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