Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 312
________________ ३०२ पर सवार हो जाना चाहा । ज्यों ही उसके कुंभ-स्थल में उसने अंकुश मारा, तो सैकड़ों सैनिक उसमें से निकल पड़े और नकली हाथी लुप्त हो गया। चारों ओर से अन्य सैनिक भी दौड़ आये । उन्होंने उदयन को बन्दी बना लिया। उदयन को पकड़ कर वे उज्जयिनी ले आये। और उसे ससम्मान राजबाला वासवदत्ता को वीणावादन सिखाने पर अध्यापक नियुक्त कर दिया गया। सब की मनचाही बात एक पूरे नाटक से गुज़र कर शक्य हुई । उज्जयिनी के आरात्रिक गंजित विलास-महलों और क्षिप्रा के तटवर्ती क्रीड़ा-कुंजों में, वासवदत्ता की लावण्य राशि उदयन की वीणा बजाती उँगलियों पर लहराने लगी। चण्ड प्रद्योत ने चुपचाप उदयन को नज़र कैद में डाल दिया। दिशाओं पर खेलने वाले उदयन से क्या छुपा रह सकता था। उसने भी वासवी को एक रात अपने प्रगाढ़ आलिंगन में ले कर, वहाँ से भाग चलने को राजी कर लिया। षडयंत्र रचा गया। · ·और ठीक मुहूर्त आने पर वह 'अनलगिरि' हाथी और 'अनिलवेगा भद्रावती' हस्तिनी पर सवार हो कर, वासवदत्ता का हरण कर ले गया । प्रद्योत के मन की चाह पूरी हुई थी। पर उसकी बेटी का हरण कोई कर जाये, और उसके हस्ति-रत्नों को भी कोई उड़ा ले जाये, और उसकी अनब्याही बेटी आवारा उदयन की सहत्तिनी हो कर जंगल-जंगल भटके, यह उसे सह्य न हुआ। उसने वासवदत्ता को लौटाने के अनेक गुप्त षडयन्त्र किये, पर खुल कर वह दुर्जेय वत्सराज उदयन से शत्रुत्व नहीं करना चाहता था। और वह अपनी बेटी को कौशाम्बी के महारानी पद पर अभिषिक देखने को भी कम आतुर नहीं था । . . . ठीक मुहूर्त आने पर गान्धर्व परिणय द्वारा वासवी से विवाह कर के, उदयन ने उसे कौशाम्बी के पट्टमहिषी पद पर अपने समकक्ष आसीन किया। __लेकिन मृगावती के प्रति जो एक गहन स्वप्न- वासना प्रद्योत के मन को भूगर्भी आँच की तरह सदा तप्त करती रहती थी, वह फिर एक बार धार पकड़ने लगी। एक बार चित्रपट की मृगनयनी को बाहुओं में बाँधे बिना, वह अपने पौरुष को पराजित अनुभव करता रहता । एक आधारहीन मोहिनी बरसों-बरसों उसके प्रबल आसक्त चित्त को दिन-रात मथती रही। · · · महारानी मृगावती मानो एक गहरी ध्यान-तन्द्रा में लीन हो कर, बीच के पन्द्रह-बीस वर्षों की उक्त घटनाओं को एकाग्र अपनी याद के पर्दे पर छाया-खेला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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