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________________ ९० की लकड़ी की तरह जला देती है । अपने समय के अवतारी को पहचानना सहज नहीं, देवी । स्वयं उसी के अनुग्रह से वह संभव हो पाता है।' _ 'सच कह रहे हो, देवानुप्रिय। तुम्हारी क्रिया और तुम्हारा वचन, उन प्रभु का ही तो था। उनका अनुग्रह मुझ हतभागिनी को भी प्राप्त हो गया । · · · मैंने अपने परमेश्वर पिता को पहचान लिया !' देवी अनवद्या हठात् खड़ी हो गईं । मन-ही-मन प्रतिज्ञा की : 'अब अपने स्वामी के श्री चरणों में पहुँच कर ही, अन्न-जल ग्रहण करूँगी।' और तत्काल वे उस दिशा में विहार कर गयीं, जिधर श्री भगवन्त पाँच योजन पर समवसरित थे। उनकी श्रमणियाँ भी अविकल्प उनका अनुगमन कर गयीं । 'आओ अनवद्या । तुम्हें आना ही था। सुबह का भटका साँझ को घर लौटता ही है। सब यथा समय, यथा स्वभाव होता है।' अनवद्या की आँखों से धारासार आँसू बह रहे थे । निगड़ित कण्ठ से वे बोली : 'मैं अपने विश्वम्भर पिता को न पहचान सकी। धिक्कार है मुझ कृत्या को !' 'तुम्हें आदिकाल से जानता हूँ, अनवद्या। और तुम भी आदिकाल से मुझे पहचानती हो । प्राणि मात्र के बीच मोहान्धकार की असंख्य रात्रियाँ पड़ी हैं । शुद्ध परिणमन का मुहुर्त आने पर ही परम मिलन अनायास होता है। कभी तुम्हें अनवद्या कहा था, प्रियदर्शना। तुम्हें कलंक लग ही नहीं सकता ! फिर ग्लानि क्यों? तुम कृतार्थ हुईं, अनवद्या, तुम परिपूर्त हुई ।' किंतु अनवद्या के भीतर से उमड़ती रुलाई रुक ही नहीं पा रही थी । श्री भगवान बोले : 'तुम्हारी समवेदना को बझ रहा हूँ, देवानुप्रिये । यही महावीर की दुहिता के योग्य है। · · · निश्चिन्त हो जाओ। आर्य जमालि दिवंगत हो गये । वे लान्तक देवलोक में किल्विष देव हो कर इस समय कुसुम-शैया में सुख से सोये हैं । अब उन्हें तुम्हारे सहारे की ज़रूरत नहीं।' 'उनका भवितव्य प्रभ ?' 'आसन्न भव्य हैं, आर्य जमालि । कुछ जन्मान्तरों के बाद निकट भविष्य में ही मोक्ष लाभ करेंगे । महावीर के द्रोही की मुक्ति अवश्यम्भावी है । जिसने मुझे हर साँस में याद किया, उसे तो मुक्त होना ही है !' प्रियदर्शना की भवरात्रि समाप्त हो गयी। क्षण मात्र में उसके जनम-जनम के मोहान्धकार कट गये । उसके भ्रूमध्य में जैसे कोई अपूर्व सूर्योदय हो गया। वह साष्टांग प्रणिपात में प्रभु के समक्ष निवेदित हो गयी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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