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________________ २८९ कि सत्य सहज स्वाभाविक होता है, वह तर्कित नहीं होता। उन्हें अवाक् देख कर ढंक फिर बोला : 'इसी क्रियमाण और कृत के विवाद की खातिर आपने अपने त्रैलोक्ये श्वर पिता का परित्याग कर दिया। इसी की खातिर प्रभु के अविभक्त संघ को आपने खण्डित हो जाने दिया। लेकिन जब स्वयं आपकी संघाटि में आग लग गई, तो सत्य आपके मुंह से ही बरबस निकल गया। शेष तो आप जानें !' प्रियदर्शना को हठात् लगा कि जैसे उनकी आँखों के सामने से एक साथ अन्धकार के कई पटल हट गये हैं । वे भावित और उच्छवसित हो आई । भर आये स्वर में बोली : 'सौम्य ढंक, तुमने मुझे अनादि की मूर्छा से जगा दिया । मेरी मोह-रात्रि को क्षण मात्र में काट दिया। · · · तुम्हारे प्रति मेरी कृतज्ञता का अन्त नहीं !' 'मैं कौन होता हूँ, भगवती, यह तो उन सर्वशक्तिमान प्रभु का अनुग्रह है । ठीक मुहूर्त आने पर वे स्वयं ही पर्दा हटा देते हैं। अपने जीवन में अनेक बार इसका अनुभव किया है ।' 'देवानुप्रिय ढंक, बालपन से ही उनके इतनी नज़दीक रही । सारे नंद्यावर्त में केवल मुझी पर उनकी पितृ-दृष्टि थी। मुझे वे बेटी मानते थे, यह सब कोई जानते थे । नाम रक्खा था, अनवद्या । तो परिवार की सारी लड़कियों को ईर्ष्या हो गयी थी । प्रभु ने मेरा नाम रक्खा। उससे मुझे पुकारा । ___ . . . और फिर उनकी विराट धर्मसभा देखी, उनके संघ में रह कर और उनके संग विहार कर, उनकी अंगभूत हो रही। फिर भी मैं उन्हें न समझ सकी। और तुमने उन्हें दूर से ही पूरा समझ लिया, सौम्य ढंक । · · · और मैं हतभागिनी उन्हें छोड़ कर निकल पड़ी।' 'ग्लानि न करें, देवी, जो कुछ हुआ है, वह प्रभु की इच्छा और अनुमति से ही हुआ है। निराले हैं उनके खेल । उन्हें कौन समझ सकता है ! · · ·और वही तो आपको घर लौटा लाये आज । मैं तो निमित्त मात्र था । इस लीला का पार नहीं ।' 'एक विचित्र व्यंग को सामने देख रही हूँ, आयुष्यमान ढंक । लोकतारक अपनों के बीच ही सबसे ज्यादा अयाना होता है। उसके अपने कुटुम्बी,परिचित,मित्र ही उसे सब से कम जानते और पहचानते हैं। वही उसकी सबसे अधिक अवहेलना करते हैं। उसका तिरस्कार और पीड़न तक करते हैं। मैंने अपने पिता को कम दुःख न दिया। · · ·हाय मैं अभागिनी ! 'और अनवद्या की छाती टूक-टूक होने लगी। 'ठीक ही कह रही हैं, देवी। जगत में सदा से यही रीत चली आयी है। मलयागिरि की भीलनी के मन चन्दन का कोई मोल नहीं होता । वह उसे बबूल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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