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'देवानुप्रिय जमालि, जानो, यही महावीर है । एकान्त का आग्रह सर्वज्ञ के समक्ष टिकता नहीं । तुम्हारा मौन ही तुम्हारा समीचीन उत्तर है ।'
जमालि को लगा कि उसके ऐसे प्रचण्ड विरोध को भी यहाँ अबाध अवकाश है। उसका प्रतिकार नहीं । इस अनिरुद्ध सत्ता के आगे, कोई आग्रह, कोई अवरोध टिकता ही नहीं। एक गहरे व्यर्थता - बोध से म्लान और क्षुब्ध हो कर जमालि चुपचाप वहाँ से चला गया । उसे नहीं समझ आया, कि इस अनुत्तर को कैसे उत्तर दिया जाये ?
एक दा जमालि अपने संघ के साथ विहार करता हुआ फिर श्रावस्ती पहुँचा । वह अपने श्रमणों सहित किसी कम्मार की कम्मशाला में ठहरा । और आर्या प्रियदर्शना अपनी श्रमणियों के संग ढंक कुम्हार की भाण्डशाला में ठहरीं योगायोग कि पहली बार वे अलग-अलग स्थानों पर ठहरे थे ।
ढंक भगवान महावीर का परम भक्त श्रावक था । प्रभु के प्रति जमालि के द्रोह वह पूरी तरह परिचित था । इससे उसके हृदय में गहरी व्यथा थी । ढंक कोई विद्वान नहीं था । वह भाविक था, और भगवान की वाणी को उसने हृदय के भाव में ग्रहण किया था । वह सिद्धान्त नहीं समझता था, उसने अपनी भक्ति और प्रीति से ही प्रभु की देशना को अपने भीतर आत्मसात कर लिया था ।
देवी प्रियदर्शना को निकट पा कर उसको व्यथा उमड़ आयी । प्रभु के प्रति - रूप जैसी उनकी यह एकमेव बेटी अपने जगत्पति पिता से बिछुड़ गयी है । सत्य का यह अपलाप उसे असह्य हो उठा । विवाद उसे नहीं रुचा, उसने एक युक्ति करके अनवद्या के अकलंक हृदय तक पहुँचना चाहा ।
एक दिन सुयोग देख कर उसने आग की कुछ चिनगारियाँ अनवद्या के निकट फैला दीं। एक चिनगारी उड़ कर प्रियदर्शना के वस्त्र में जा पड़ी, और वस्त्र जलने लगा ।
प्रियदर्शना एकदम बोल पड़ी :
'वत्स ढंक, यह आग कहाँ से आई ? मेरा वस्त्र जल गया ! '
'आयें, आपका वस्त्र जल गया कि जल रहा है ?"
'सौम्य, पूछ क्या रहे हो, तुम्हारी आँखों आगे वस्त्र जल रहा है, उसे नहीं देख सकते ? '
'हाँ तो यों कहें, भगवती, कि वस्त्र जल रहा है । आप तो बोल पड़ी थीं, कि जल गया है ! '
अनवद्या ने आग को तो वहीं मसल दिया, पर वे सोच में पड़ गयीं । ढंक ने उनकी आँख में उँगली डाल कर उन्हें सत्य दिखा दिया था । दिखा दिया था,
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