SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८७ बज रहा है। अर्हन्त केवली तुम नहीं, जमालि है। तुम्हारा सूर्य अस्त हो चुका, तुम्हारी प्रभा लोक से लुप्त हो गयी। · · · इस समय जनपदों के चित्त पर जमालि के सिद्धान्त का राज्य है। 'मैं फिर कहता हूँ, महावीर, क्रियमाण कृत नहीं है । तुम्हारा तर्क व्यवहार की निहाई पर ग़लत सिद्ध हो चुका । अपनी हठ छोड़ दो, नहीं तो एक दिन पछताना होगा!' श्री भगवान निष्कम्प निर्वात दीपशिखा की तरह अचल रहे। सारी पर्षदा में सन्नाटा व्याप गया। जैसे इस आवाज़ को किसी ने सुना ही नहीं । वह व्यर्थ हो गयी। जमालि ने फिर कहा : 'देवानप्रिय महावीर, जानो कि तुम्हारे अनेक शिष्यों की तरह मैं छद्मस्थ नहीं विहर रहा । मैं केवली-विहार से विचर रहा हूँ । मैं सर्वज्ञ हैं। यह जान लो, और अन्तिम रूप से मान लो।' __ श्री भगवान अनाहत मौन में समाधिस्थ हो रहे। गौतम अनुकम्पा से भर आये । बहुत मृदु वाणी में बोले : 'महानुभाव जमालि, केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन तो ऐसी ज्योति है, जिसका प्रकाश आपोआप ही लोकालोक में फैल जाता है। उसे फैलाना नहीं पड़ता, उसकी उद्घोषणा अनावश्यक है । जो सर्वव्यापी आलोक नदी, समुद्र, गगनभेदी पर्वतमालाओं से भी स्खलित नहीं होता, जिस प्रकाश के आगे अभेद्य अंधेरी गुफाएं और तमस् के क्षेत्र भी हथेली पर रक्खे आँवले की तरह आलोकित हो उठते हैं, वह तो स्वयं ही पहचान लिया जाता है । तुम अर्हन्त हो तो लोक जान ही लेगा, कि तुम कौन हो । शान्त क्त्स, शान्त । जिसमें सुख लगे, वही करो।' जमालि असमंजस में पड़ गया। जो उसकी राह में आना ही नहीं चाहता, उसे वह क्या कह कर ललकारे । धीरे से पूछा गौतम ने : 'महानुभाव जमालि, लोक शाश्वत है कि अशाश्वत है ?' जमालि से उत्तर न आया । वह विकल्प में पड़ गया कि, हाँ कहे या ना कहे । वह मन-ही-मन जानता था कि अनेकान्त में उसका हर एकान्त उत्तर झूठा सिद्ध हो सकता है। पर अनेकान्त को वह कैसे स्वीकारे ? जमालि चुप रह गया । सामने सम्वादी इतना अनाग्रही है, कि उसके सम्मुख किसी भी आग्रह को अवकाश कहाँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy